गाय पर HC का ज्ञान, क्‍या कहता है विज्ञान, सिर्फ आस्‍था या वाकई ईश्‍वर का वरदान!

गाय पर HC का ज्ञान, क्‍या कहता है विज्ञान, सिर्फ आस्‍था या वाकई ईश्‍वर का वरदान!
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नई दिल्‍लीइन दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट सुर्खियों में है। इसकी वजह गोकशी से जुड़े एक मामले में फैसला देते हुए गायों को लेकर उसकी टिप्‍पणी है। कोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही है। उसने गाय को एकमात्र पशु बताया है जो ऑक्सिजन लेता और छोड़ता है। 12 पन्‍ने के इस आदेश में गायों से जुड़ी कई प्रचलित बातें की गई हैं। इन्‍हें मॉर्डन साइंस मान्‍यता नहीं देती है। खैर, कोर्ट के आदेश के बाद गाय पर चर्चा ने दोबारा जोर पकड़ लिया है।

कोर्ट ने क्‍या-क्‍या कहा?
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बुधवार को एक जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान गायों के संदर्भ में कई बातों का जिक्र किया। जस्टिस शेखर यादव की बेंच ने ये टिप्पणियां गोकशी के एक आरोपी जावेद की जमानत याचिका को खारिज करते हुए कीं। कोर्ट ने कहा कि गोरक्षा को हिंदुओं का मूल अधिकार बनाया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि गाय तब भी उपयोगी होती है जब वह बूढ़ी और बीमार हो जाती है। उसका गोबर और मूत्र खेती करने, दवाओं को बनाने में बहुत उपयोगी है। लोग गाय को मां की तरह पूजते हैं। इस दौरान कोर्ट ने यह भी बताया कि गाय की रक्षा और उसे बढ़ावा देना किसी मजहब से नहीं जुड़ा है। गाय तो भारत की संस्कृति है और संस्कृति की रक्षा करना देश में रह रहे हर नागरिक का फर्ज है चाहे उनका मजहब कुछ भी हो। यहां तक मुस्लिमों ने भी अपने शासन के दौरान भारतीय संस्कृति में गाय की अहमियत को समझा। अपने आदेश में कोर्ट ने पंचगव्‍य का जिक्र करते हुए कहा कि इसे कई असाध्‍य बीमारियों के उपचार में इस्‍तेमाल किया जाता है। यह दूध, घी, और गोबर से बनाया जाता है। कोर्ट ने यह भी बताया कि गाय एकमात्र पशु है जो ऑक्सिजन लेती और छोड़ती है।

सिर्फ गाय ही नहीं छोड़ती ऑक्सिजन
गायों पर पीठ ने जो बात कही, उनमें से कई के ठोस वैज्ञानिक साक्ष्‍य नहीं हैं। साइंस इन्‍हें ‘मान्‍यताएं’ यानी हाइपोथिसिस मानता है। ऑक्सिजन वाली बात को ही लेते हैं। इसे लेकर बीबीसी पर एक विस्‍तृत लेख मिलता है। इस लेख में बताया गया है कि सांस लेते हुए हम जो वायु लेते हैं, उसमें नाइट्रोजन और ऑक्सिजन के साथ थोड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्‍साइड और अन्‍य गैसें भी होती हैं। इसमें ऑक्‍सीजन का अनुपात 21 फीसदी होता है। वहीं, छोड़ी जाने वाली सांस में ऑक्‍सीजन का यही अनुपात घटकर 16 फीसदी रह जाता है। सांस खींचते हुए हम 0.04 फीसदी कॉर्बन डाइऑक्‍साइड और 79 फीसदी नाइट्रोजन लेते हैं। वहीं, छोड़ते हुए कॉर्बन डाइऑक्‍साइड का अनुपात 4 फीसदी और नाइट्रोजन का 79 फीसदी रहता है। इस तरह सिर्फ एकमात्र गाय ही नहीं है जो ऑक्सिजन लेती और छोड़ती है।

कई मंत्री करते आए हैं यह बात
बीते कई सालों में कई मंत्री गाय के ऑक्सिजन लेने और छोड़ने की बात को चमत्‍कार की तरह बताते आए हैं। 2017 में राजस्‍थान के तत्‍कालीन शिक्षा और पंचायती राज मंत्री वासुदेव देवनानी ने भी यही बात कही थी कि गाय एकमात्र जानवर है जो सांस के साथ ऑक्सिजन लेती और छोड़ती है। उन्‍होंने लोगों से गाय की वैज्ञानिक महत्‍व को समझने की जरूरत भी बताई थी। फिर 2019 में उत्‍तराखंड के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने भी दावा किया था कि सिर्फ गाय है जो कार्बन डाइऑक्‍साइड की जगह ऑक्सिजन छोड़ती है।

वैज्ञानिक बताते हैं ‘मिथ’
पिछले कुछ साल में तमाम ऐसे रिसर्च पेपर पब्लिश हुए हैं जिनमें गोमूत्र, गाय के गोबर और अन्‍य चीजों को लेकर दिए जाने वाले बयानों पर स्‍पष्‍टीकरण दिया है। जानकार बताते हैं कि मंत्री और धार्मिक नेता गोमूत्र और गोबर को लेकर भी बड़े-बड़े दावे करते हैं। यहां तक कोरोना, कैंसर और टीबी के इलाज में भी इनके मददगार होने का दावा किया जाता रहा है। लेकिन, इसका वैज्ञानिक सबूत नहीं है। विज्ञान प्रचलित मान्‍यताओं को परखता है। उन्‍हें वैज्ञानिक कसौटियों पर तौलता है। जब वे बार-बार खरे उतरते हैं तभी उन्‍हें अपनाया जाता है। इसी तरह का एक दावा करके हाल में साध्‍वी प्रज्ञा ठाकुर ने किरकिरी कराई थी। उन्‍होंने दावा किया था कि गोमूत्र से उनका कैंसर ठीक हुआ। हालांकि, बाद में खबरें आईं कि उनका कैंसर गोमूत्र से नहीं बल्कि सर्जरी से ठीक हुआ। इसी तरह कोरोना के इलाज करने के लिए भी दूसरी लहर के दौरान गोबर से नहाते लोगों की तस्‍वीरें खूब वायरल हुई थीं। लेकिन, भारतीय डॉक्‍टरों ने ही कहा था कि इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि कोरोना से रोकथाम में मददगार है। लिहाजा, लोग यह सोचकर ‘गोबर स्‍नान’ न करें कि वह इससे कोरोना को मात दे देंगे।

पिछले साल भी सरकार ने की थी कोशिश
पिछले साल भारत सरकार ने ‘शुद्ध देसी गायों’ से गाय के गोबर, मूत्र, दूध और अन्य तमाम बाई-प्रोडक्‍टों के बेनिफिट्स पर रिसर्च की एक पहल का आह्वान किया था। इस कार्यक्रम की अगुआई भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) ने की थी। यह आधिकारिक मंत्रालय है जो वैज्ञानिक अनुसंधान की अगुवाई करता है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने इसमें दिलचस्‍पी नहीं ली। उनका मानना था कि कैंसर, डायबिटीज और हाई ब्‍लडप्रेशर जैसी बीमारियों के क्षेत्र में पहले ही बहुत रिसर्च हो चुकी है। साथ ही इन बीमारियों का वैदिक ग्रंथों में भी कहीं जिक्र नहीं मिलता है। इस बात के भी कोई ठोस साक्ष्‍य नहीं हैं कि वास्‍तव में ये प्रोडक्‍ट इन बीमारियों को ठीक करते हैं।

विज्ञान ने भी खाया है गच्‍चा
हालांकि, विज्ञान भी कई मौकों पर गच्‍चा खाया है। इस बात को कोरोना काल में कई बार देखा गया। पहले कुछ और बाद में कुछ कहा गया। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘अनल्‍स ऑफ इंटरनल मेडिसिन’ अपने यहां अप्रैल 2020 में पब्लिश एक पेपर से पीछे हटा। इसमें जोर देकर कहा गया था कि कोरोना को फैलने से रोकने में फेस मास्‍क प्रभावी नहीं हैं। कोई नहीं जानता कि इस गलत जानकारी से कितने लोग संक्रमित हुए हों। आइवरमेक्टिन के बारे में भी ऐसे ही दावे किए गए कि यह दवा 90 फीसदी से ज्‍यादा तक कोरोना से होने वाली मौत रोक देती है। हालांकि, बाद में यह दावा वापस ले लिया गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि विज्ञान भी अंतिम सत्‍य नहीं है। खोज ऐसा विषय है जो निरंतर जारी रहता है।

फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स

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