आइंस्टीन को चुनौती देने वाले वशिष्ठ याद हैं ना! उनके 'कंप्यूटर माइंड' से हैरान था अमेरिका

आइंस्टीन को चुनौती देने वाले वशिष्ठ याद हैं ना! उनके 'कंप्यूटर माइंड' से हैरान था अमेरिका
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चंदन कुमार,आरा
आज डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह जीवित होते तो अपना 79 वां जन्मदिन मनाते, लेकिन दुर्भाग्य से अब वे हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन गणित की दुनिया में जो मुकाम जीते जी, या यूं कहें कि बेहद कम समय में भोजपुर के इस ‘लाल’ ने हासिल किया, उसकी सदियों तक मिसाल दी जाती रहेगी। जब वशिष्ठ नारायण की चर्चा होगी, तो साथ में यह भी कहा जाएगा कि उस हीरे को हमारी सत्ता और व्यवस्था सहेज कर रखने में नाकाम रही।

बचपन और शिक्षा दीक्षाभोजपुर के एक छोटे से गुमनाम गांव आरा सदर प्रखंड के बसंतपुर में एक अति साधारण परिवार में असाधारण बच्चे ने जन्म लिया, वह साल था 1942 और महीना था अप्रैल का। कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, वशिष्ठ नारायण सिंह की मेधा की चर्चा प्राथमिक स्कूल में ही होने लगी, तभी तो घर वालों ने उनका नाम नेटरहाट स्कूल में लिखवा दिया, जो उस जमाने का सर्वश्रेष्ठ आवासीय विद्यालय था। वशिष्ठ ने मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया।

पटना साइंस कॉलेज से नासा का सफरवशिष्ठ नारायण सिंह का नामांकन पटना के साइंस कॉलेज में हुआ तो वहां के प्रोफेसर टी नारायण, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने कहा कि यह छात्र तो B.Sc टॉप करने की क्षमता रखता है। फिर राज्यपाल से अनुरोध कर B.Sc फाइनल की परीक्षा में बैठने की विशेष अनुमति दिलाई गयी, तब वशिष्ठ पार्ट-1 के छात्र थे। कहते हैं B.Sc की परीक्षा में वशिष्ठ नारायण सिंह ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया।

बिहार के इस होनहार की चर्चा तब अमेरिका पहुंच गयी। लोग बताते हैं कि अमेरिका के एक प्रोफेसर केली, वशिष्ठ से मिलने पटना आए और अपने साथ उन्हें बर्कले यूनिवर्सिटी लेते गये। वहां महज तीन साल में ही वशिष्ठ नारायण ने M.Sc और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से P.hd की। यह वर्ष 1969 की बात है। उसी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर की नौकरी करने लगे। कुछ समय नासा में भी अपनी सेवाएं दी। लेकिन जन्मभूमि की पुकार ने उनको घर आने के लिए मजबूर किया और 1971 में वे भारत लौट आए।

जब फेल हआ नासा का कंप्यूटरडॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के मेधा की विश्वपटल पर ख्याति मिलने की एक बड़ी प्रसिद्ध और रोचक कहानी है। कहते हैं कि NASA ने अपोलो की लॉचिंग के समय 31 कंप्यूटर एक बार कुछ समय के लिए बंद हो गये। तब डॉ. वशिष्ठ भी उसी टीम में थे। उन्होंने अपना कैलकुलेशन जारी रखा। जब कंप्यूटर ठीक हुए तो उनका और कम्प्यूटर का कैलकुलेशन एक था। इस घटना ने नासा के वैज्ञानिकों को भी अचंभित कर दिया। डॉ. सिंह के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी। अमेरिका ने डॉ. सिंह को स्थायी तौर पर रहने का ऑफर दिया। कहा जाता है कि प्रोफेसर केली भी अपनी बेटी की शादी वशिष्ठ नारायण से करना चाहते थे, लेकिन बात नहीं बन सकी।

स्वदेश वापसी, नौकरी और शादी
1971 में भारत आने के बाद डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को पहले आईआईटी कानपुर और फिर आईआईटी बॉम्बे पढ़ाने का काम मिला। कुछ समय वे कोलकाता में भी रहे और नौकरी की। इस दौरान 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से घर वालों ने करा दी। बताते हैं कि शादी के कुछ दिन बाद से ही डॉ. वशिष्ठ के व्यवहार में बदलाव दिखने लगा। जब स्थिति गंभीर हुई तो घर वालों ने इलाज शुरू कराया। उनको रांची के मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती कराया गया। इलाज में जब काफी पैसे खर्च हुए तो बिहार सरकार ने सहयोग किया लेकिन फिर मुंह मोड लिया। एक समय ऐसा भी आया जब अस्पताल ने भुगतान न होने के चलते जबरन वशिष्ठ सिंह को डिस्चार्ड कर दिया। बिहार में जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने इलाज के पैसे चुकता किये और सारे खर्च उठाने की घोषणा की।

गुमनामी की जिंदगी और मौतडॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की मानसिक स्थिति जब खराब हुई तो घर वालों के पास समुचित इलाज भर पैसे नहीं थे। सरकार और उनके सहपाठियों ने कभी कभार आर्थिक सहायता दी। ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन पुणे से इलाज कराकर लौटते वक्त वे ट्रेन से कहीं उतर गये और लापता हो गये। कई वर्ष बाद छपरा जिले में उनको पागलों की तरह फुटपाथ पर घूमते देखा गया। फिर उनके गांव के 2 लोग जो कि वहां किसी काम से छपरा गए थे, वे लोग उनको लेकर किसी तरह अपने गांव बसंतपुर पहुंचे। फिर वशिष्ठ नारायण सिंह गांव बसंतपुर लाए गये। तब लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे। लालू प्रसाद बसंतपुर आए और डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह से मिले। इलाज का खर्च सरकारी स्तर पर उठाने की घोषणा की। उनके भाई और गांव के दो लोगों को सरकारी नौकरी दी, जो लोग छपरा से उनको आरा लेकर पहुंचे थे। बाद में डॉ सिंह के इलाज की व्यवस्था बेंगलुरु में करायी। लेकिन यह व्यवस्था भी वशिष्ठ नारायण सिंह को पूरी तरह ठीक कर पाने में नाकाम रही। अंत में वे गांव में ही रहने लगे, जहां उनकी मां, भाई अयोध्या सिंह और उनके पुत्र मुकेश सिंह देखरेख करते थे। उनकी सेवा में उन लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी पूरा परिवार उनकी सेवा में दिन रात लगा रहता था।

मरणोपरांत पद्मश्री सम्मानतकरीबन 40 साल तक मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के एक अपार्टमेंट में गुमनामी का जीवन बिताते रहे। कभी-कभी कोई संस्था वाले उनको सम्मान के लिए बुलाते और यदा-कदा उनके स्वास्थ्य की स्थिति अखबारों में प्रकाशित होती रहती। उनको नजदीक से जानने वाले बीजेपी के पूर्व एमएलसी हरेन्द्र प्रताप बताते हैं- “इस दौरान भी किताब, कॉपी और एक स्लेट, पेंसिल उनके सबसे अच्छे दोस्त थे।” पटना में उनके साथ रह रहे भाई अयोध्या सिंह याद करते हैं- “अमेरिका से अपने साथ वे 10 बक्से भरकर किताबें लाए थे, जिन्हें वो पढ़ा करते थे। अक्सर किसी छोटे बच्चे की तरह ही उनके लिए तीन-चार दिन में एक बार कॉपी, पेंसिल लानी पड़ती थी। जिसपर वो कुछ कुछ लिखते, जिसे पठना और समझना मुश्किल था। अक्सर रामायण का पाठ करते रहते थे।”

इन्हीं परिस्थियों में रहते हुए 14 नवंबर, 2019 को पटना के पीएमसीएच में उन्होंने आखिरी सांस ली। सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि करायी और केन्द्र की मोदी सरकार ने डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया।

साभार : नवभारत टाइम्स

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