हिंसा से दामन पर लगे दाग, चौधरी महेंद्र सिंह की विरासत संभाल नहीं पाए टिकैत बंधु!
लोग बातें कर रहे हैं कि कैसे किसानों के मसीहा और अपने पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत को जूनियर टिकैत निभाने में सफल नहीं हो पाए। उन्हें दिल्ली में एक अच्छा मौका मिला पर वह अपने गलत फैसलों के कारण इसका फायदा उठाने में चूक गए। दिल्ली में हुई हिंसा के बाद नरेश टिकैत और राकेश टिकैत अब यूपी सरकार के निशाने पर आ गए हैं।
चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने सिखाई थी हक की लड़ाई
दिल्ली में इतने महीनों से धरना दे रहे किसानों के अंदर आत्मविश्वास कहां से आया था? सत्ता से टकराने का जज्बा उन्हें कहां से मिला था? इन सबका एक ही जवाब है – भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत। किसानों को अपने हक के लिए लड़ना सिखाने वाले बाबा टिकैत के एक इशारे पर लाखों किसान जमा हो जाते थे। कहा तो यहां तक जाता था कि किसानों की मांगें पूरी कराने के लिए वह सरकारों के पास नहीं जाते थे, बल्कि उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि सरकारें उनके दरवाजे पर आती थीं।
नरेश और राकेश टिकैत की थी अग्निपरीक्षा
ऐसे महान पिता की विरासत को संभालने का पूरा जिम्मा उनके बेटों नरेश टिकैत और राकेश टिकैत पर था। किसान कानूनों के विरोध में दिल्ली का किसान आंदोलन उनके लिए अग्नि परीक्षा की तरह थी। जूनियर टिकैत पर जिम्मेदारी थी कि अपने पिता के पद चिह्नों पर चलते हुए वे किसानों का बखूबी नेतृत्व करें और सरकार को उसके घुटनों के बल ला दें पर क्या ऐसा हो पाया? क्या नरेश टिकैत और राकेश टिकैत ने कोई ऐसा दूरदर्शी फैसला लिया जिससे किसानों को जीत हासिल होती?
1988 का वह ऐतिहासिक आंदोलन, झुक गई थी सरकार
आपको बता दें कि इससे पहले वर्ष 1988 में भी किसानों का विशाल आंदोलन हुआ था। बाबा महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में पूरे देश से करीब 5 लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्जा कर लिया था। अपनी मांगों को लेकर इस किसान पंचायत में करीब 14 राज्यों के किसान आए थे। सात दिनों तक चले इस किसान आंदोलन का इतना व्यापक प्रभाव रहा कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार दबाव में आ गई थी। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को किसानों की सभी 35 मांगे माननी पड़ीं, तब जाकर किसानों ने अपना धरना खत्म किया था।
5 लाख किसानों ने डाला था लंगर, कोई हिंसा नहीं हुई यहां ध्यान देने वाली बात है कि रायसीना हिल से इंडिया गेट तक पांच लाख किसानों की भीड़ लंगर डाले हुई थी। बावजूद इसके यह बाबा टिकैत के दूरदर्शी नेतृत्व का ही नतीजा रहा कि सात दिनों तक चले धरने में एक भी दिन किसान उग्र नहीं हुए। दिल्ली में कहीं हिंसा की कोई घटना नहीं हुई। पूरा किसान आंदोलन शातिपूर्ण रहा और अंत में सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा।
64 दिनों पर भारी पड़ गया 7 दिनों का किसान आंदोलन
अब बाबा टिकैत के उस आंदोलन की तुलना इस बार के किसान आंदोलन से कीजिए। जमीन आसमान का अंतर नजर आएगा आपको। 1988 के सात दिनों की तुलना में वर्तमान का किसान आंदोलन 64 दिनों से चल रहा है। पर इस बार किसान आंदोलन की आड़ में लाल किले समेत दिल्ली के अलग अलग जगहों पर जो हिंसा हुई, क्या उसे जायज ठहराया जा सकता है? क्या बाबा टिकैत की विरासत को उनके बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत बखूबी संभाल पाए? जिस बाबा टिकैट के इशारे पर किसान आगे बढ़ते थे, उन किसानों को उचित नेतृत्व देने में जूनियर टिकैत पूरी तरह से असफल नजर आए। दिल्ली में हुई हिंसा किसान नेता के तौर पर नरेश और राकेश टिकैत की बड़ी असफलता को जाहिर करती है।
…जब सीएम ने बाबा टिकैत के गांव पहुंच की थी वार्ता
गौरतलब है कि बाबा टिकैत के नेतृत्व में वर्ष 1986 में भी बिजली की बढ़ी दरों को लेकर किसान लामबंद हुए थे। महेंद्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। आंदोलन का ऐसा असर था कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को सिसौली (टिकैत के गांव) पहुंचकर किसानों से वार्ता करनी पड़ी। 11 अगस्त 1987 को सिसौली में एक महा पंचायत की गई, जिसमें बिजली दरों के अलावा फसलों के उचित मूल्य, गन्ने के बकाया भुगतान के साथ सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, मृत्यु भोज, दिखावा, नशाबंदी, भ्रूण हत्या आदि कुरीतियों के विरुद्ध भी जन आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया गया।
साभार : नवभारत टाइम्स