जब एचडी देवेगौड़ा ने गुस्से में लिखा इस्तीफा और प्रधानमंत्री आवास जाकर नरेंद्र मोदी को थमा दिया
दीपक तैनगुरिया ने। प्रस्तुत हैं इसके मुख्य अंश :
आपने अपनी किताब में देवेगौड़ा के लिए लिखा है कि ‘वह अपनी सारी अपूर्णताओं के योग से अधिक हैं।’ इसे समझाएं क्योंकि यही पंक्ति नेहरू जी के लिए भी एक लेख में लिखी गई थी…
नेहरू पर जो लेख है, उसकी पंक्ति है, ‘नेहरू अपनी सारी अपूर्णताओं के योग से कई-कई गुना ज्यादा हैं’। इसे आप देवेगौड़ा पर भी लागू कर सकते हैं। चूंकि वह दक्षिण से हैं और हिंदी भाषी नहीं हैं, इसलिए उन्हें लेकर भ्रांतियां हैं। वह हमेशा इस बात को लेकर सचेत रहते थे कि वह नेहरू की कुर्सी पर बैठ रहे हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि उन्हीं नेहरू की कांग्रेस ने देवेगौड़ा को सत्ता से बाहर कर दिया। फिर भी, उन्होंने हमेशा कहा कि नेहरू ने हमें एक महान देश और संवैधानिक लोकतंत्र दिया। यह देवेगौड़ा की भी सोच थी कि भारत संभाला नहीं जा सकता था अगर नेहरू न होते, उनका दृष्टिकोण न होता।
आपकी किताब दावा करती है कि देवेगौड़ा का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर पूरा भरोसा है। उनके निजी और सार्वजनिक जीवन में आपको उनकी यह समझ कितनी दिखी?
देवेगौड़ा कोई समाजशास्त्री या अकादमिक नहीं हैं। मैंने उन्हें करीब से देखा है- प्रार्थना करते हुए, लोगों से बातचीत करते हुए। मुझे नहीं लगता कि वह किसी धर्म में भेद करते होंगे। वह अपने भगवान से प्रार्थना तो करते हैं, लेकिन यह नहीं कहते कि मेरा भगवान किसी से महान या बड़ा है। उन्होंने मुस्लिम टोपी पहनने में भी झिझक नहीं दिखाई। जब वह प्रधानमंत्री पद छोड़ रहे थे, तब वह वाजपेयी का साथ ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। साल 1996 में वह अपने पिता के बारे में संसद में बोले कि उन्होंने सिखाया है कि भगवान हर जगह है, इस संसद की दीवारों में भी। असल में देखिए कि देवेगौड़ा कैसे दुख और मानसिक सदमे से गुजरे, जब उनके बेटे बीजेपी में चले गए। यह उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ।
आपने लिखा है कि एक बार देवेगौड़ा ने संसद में खुद इस्तीफा लिखा और सात रेसकोर्स जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंप आए। इस घटना के बारे में बताइए…यह प्रसंग साल 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ हफ्ते बाद हुई मुलाकात का है। लेकिन देवेगौड़ा ने चार साल बाद 2018 में बड़े गुस्से में बताया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया होता, लेकिन मोदी ने उन्हें मना लिया। देवेगौड़ा निजी शिष्टाचार का पालन करने वाले नेता हैं। 2002 गोधरा प्रसंग के बाद उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कड़े पत्र लिखे थे, जिसकी वजह से ही शायद वाजपेयी ने तब ‘राजधर्म’ शब्द इस्तेमाल किया। मोदी एक अनुभवी नेता हैं, उन्हें देवेगौड़ा के अनुभव की कद्र है। फिर असल बात तो उन्हीं को पता है कि देवेगौड़ा सचमुच इस्तीफा देना चाहते थे, या फिर यह मोदी को यह बताने का महज एक तरीका था कि मैंने जो बोला, सो किया। दरअसल प्रधानमंत्री वह अधिकारी नहीं हैं, जिन्हें सांसद अपना इस्तीफा सौंपें।
छह दशक के राजनीतिक जीवन के बाद भी देवेगौड़ा के पास सत्ता 8 बरस से भी कम रही। कई बार मुख्यमंत्री की कुर्सी के नजदीक आने के बाद जब 1994 में उनके पास सत्ता आई, तो वह 96 में दिल्ली चले आए। उन्होंने कभी अपना कोई कार्यकाल पूरा नहीं किया। आप इस तथ्य का विश्लेषण कैसे करते हैं?
वह पहले 23 वर्ष तो विपक्ष के नेता रहे। उन्होंने कभी सत्ता के लिए राजनीति नहीं की। सन 1983 में वह मुख्यमंत्री बनने को थे, लेकिन चंद्रशेखर ने उनसे विनती की कि वह हट जाएं और रामकृष्ण हेगड़े को मुख्यमंत्री बनने दें। उनके पास चार और अवसर आए, लेकिन वह पांचवीं बार में मुख्यमंत्री बने। इधर, दिल्ली में हालात विपरीत थे। ज्योति बसु की पार्टी और वीपी सिंह नहीं माने। वह ज्योति बसु को बड़ा भाई मानते थे। उन्होंने उनके पांव पकड़ते हुए कहा कि मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनना है, कर्नाटक की सत्ता में रहना है। लेकिन बसु और सुरजीत ने उन्हें चुना, तो एक वजह यह भी थी कि वह शूद्र थे। मैंने येचुरी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वह एक दलित राष्ट्रपति और शूद्र प्रधानमंत्री चाहते थे।
रामकृष्ण हेगड़े और देवेगौड़ा की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में जाति का सवाल कर्नाटक की राजनीति को कैसे मथ रहा था?देवेगौड़ा एक प्रभुत्ववादी वोक्कालिगा समुदाय से हैं। लिंगायत उनके विपक्ष का दूसरा बड़ा समुदाय था। अगर अंकों की बात करें तो रामकृष्ण हेगड़े और देवेगौड़ा की तुलना ही नहीं, क्योंकि ब्राह्मण वहां अल्पसंख्यक थे। 1970 के बाद देवेगौड़ा ही हेगड़े की जीत सुनिश्चित कराते रहे। देवेगौड़ा लोगों से घुलते-मिलते, साथ ही उनके पास संख्या बल था। हेगड़े एक बेहतर मुख्यमंत्री थे, लेकिन यह नहीं कर पाते। देवेगौड़ा ही हमेशा किंगमेकर थे।
आपने दिल्ली मेट्रो, किसानों की बेहतरी के प्रति उनके काम की चर्चा की है। क्या देवेगौड़ा के विकास कार्यों की विरासत उनके प्रति पूर्वाग्रहों के चलते सामने नहीं लाई गई?मीडिया ने देवेगौड़ा पर बिल्कुल ध्यान केंद्रित नहीं किया है। उनको लेकर कई पूर्वधारणाएं बनाई गईं। लेकिन देवेगौड़ा कोशिश करते थे। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस का भाषण भी हिंदी में दिया। दिल्ली मेट्रो के लिए तो देवेगौड़ा ने ही तब के वित्त मंत्री के खिलाफ जाकर आर्थिक सहायता दी। उन्होंने उदारीकरण पर किसानों के लिहाज से सवाल उठाए और 90-94 में मनमोहन सिंह से संवाद बनाया। 1997 में उनका दावोस का भाषण मानीखेज था। वह यथार्थवादी हैं, क्या कर सकते हैं क्या नहीं, यह भली-भांति जानते हैं।
फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स