आखिर क्यों राज्यों को नहीं रह गया सीबीआई पर भरोसा?
आलम यह है कि 2018 से लेकर जून 2021 के बीच किए 150 अनुरोधों में से सीबीआई मात्र 18 फीसदी मामलों में जांच की अनुमति हासिल कर सकी है। गौर करने की बात है कि मिजोरम (जहां मिजो नैशनल फ्रंट की सरकार है) को छोड़ दें तो सीबीआई से आम सहमति वापस लेने वाले इन तमाम राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। इन राज्यों की शिकायत है कि सीबीआई का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्य साधने के लिए किया जा रहा है और इसीलिए वे हर केस का मेरिट देखने के बाद ही उसे जांच करने की इजाजत देने या नहीं देने का फैसला करेंगे।
अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लिया है और केस को रेफर कर दिया गया है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही यह प्रकरण सही दिशा में आगे बढ़ेगा। लेकिन ध्यान में रखने की बात यह है कि ऐसी उलझनें तब पैदा होती हैं, जब केंद्रीय एजेंसियों की विश्वसनीयता का ग्राफ नीचे जाता है। सीबीआई जैसी एजेंसी के कामकाज को लेकर बना अविश्वास जहां विरोधी दलों के नेताओं के मन में आशंकाएं पैदा करता है, वहीं उनमें से कुछ को यह ढाल देता है कि वे राजनीतिक दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए अपने या अपने लोगों के खिलाफ चल रही जेनुइन जांच भी रुकवाने की कोशिश करें।
दोनों ही स्थितियों का सबसे बुरा असर इस केंद्रीय एजेंसी के द्वारा की जा रही जांच-पड़ताल पर पड़ता है। सीबीआई डायरेक्टर के हलफनामे के मुताबिक भी राज्य सरकारों की इजाजत के अभाव में लंबित पड़े मामलों में कई बड़े वित्तीय घोटालों से जुड़े हैं जो इतने बड़े हैं कि देश की इकॉनमी को भी प्रभावित कर सकते हैं। बहरहाल, इसमें शक नहीं कि इस मामले के कानूनी पहलू भी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कानूनों के जरिए निकाला गया कोई भी फॉर्म्युला व्यवहार में काम तभी करेगा, जब उस पर अमल अच्छी तरह होगा। और अमल का सूत्र इस बात में है कि सेंट्रल एजेंसियों को प्रफेशनल तरीके से काम करने दिया जाए। इस बिंदु पर केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और सेंट्रल एजेंसियों के अंदर की ब्यूरोक्रेसी तीनों की महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं और अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी ये तीनों ठीक से निभाएं तभी बात बनेगी।
फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स