तालिबान के मैनेजर को आखिर कहां ढूंढे… अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत ने दिए इन अहम सवालों के जवाब

तालिबान के मैनेजर को आखिर कहां ढूंढे… अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत ने दिए इन अहम सवालों के जवाब
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नई दिल्ली
पिछले दो दिन से अफगानिस्तान की पंजशीर घाटी में लड़ाई चल रही है। इसके पहले आइसिस खुरासान ने भी हमला किया था। इन सबके बीच तालिबान की सरकार बनती दिख रही है। अफगानिस्तान के बदलते हालात और भारत पर उनके पड़ने वाले असर को लेकर अफगानिस्तान में
भारत के राजदूत रहे राकेश सूद से राहुल पाण्डेय ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :

  1. तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा है कि कश्मीर के मुसलमानों के लिए आवाज उठाना उनका अधिकार है। उनके इस बयान को डिप्लोमैटिक तरीके से कैसे डीकोड करें?हर बयान को डिप्लोमैटिक तरीके से डीकोड करने की जरूरत नहीं होती है। हमें सिर्फ वक्तव्यों पर जाना नहीं होता डिप्लोमेसी में, हमको जो एक्शंस हैं, उनको देखना होता है। पॉलिसी एक्शंस पर निर्भर करती है, न कि वक्तव्यों पर।
  2. खबर है कि अफगानिस्तान में नई सरकार गठित करने की पूरी तैयारी हो गई है। अगर उन्होंने फॉर्मली एक सरकार बना ली, तब भारत के सामने क्या रास्ते हो सकते हैं?जब सरकार बनेगी, तब उनकी क्या नीतियां हैं, उसकी वे घोषणा करेंगे। उस पर भारत सरकार अपनी नीतियों की घोषणा करेगी। जब सरकार बनी नहीं, नीतियां घोषित हुई नहीं तो भारत सरकार पहले से कैसे अपनी नीति बना लेगी?
  3. पंजशीर में लड़ाई चल रही है। खुरासान पहले ही हमला कर चुके हैं। क्या इस तरह की चीजें आगे भी चलने वाली हैं? और न चलें, इसके लिए क्या हो सकता है? और क्या यह लड़ाइयां राजनीतिक ज्यादा हैं?तालिबान एक यूनिफाइड ग्रुप नहीं है। 1996 के मुल्ला उमर के तालिबान और इस तालिबान में अंतर है। पहले वाले तालिबान ने वहां पांच-छह साल सरकार चलाई, कैसे भी चलाई, मगर चलाई। फिर पिछले बीस साल में वे क्वेटा शूरा या रहबरी शूरा में दोबारा एकत्रित हुए। धीरे-धीरे उन्होंने वहां एक इंसर्जेंसी मूवमेंट शुरू किया जिसमें हक्कानी नेटवर्क, तहरीके तालिबान पाकिस्तान, जमातुल एहरार, लश्करे झांगवी आकर जुड़े। ईस्ट तुर्किस्तान का वीगुर मूवमेंट, उज्बेक इस्लामिक मूवमेंट, ताजिक मूवमेंट भी आकर जुड़े। आइसिस- खुरासान पहले से ही था। इतने किस्म के आतंकी समूह वहां पर हैं तो यह कहना बहुत कठिन है कि किसका निर्देश वहां चल रहा है। जब तक कि यह था कि अमेरिका को निकालना है, तब तक तो उनमें कुछ हद तक यूनिफाइड एप्रोच थी। अफगानिस्तान की सरकार को गिराना भी उनके लिए एक कॉमन ऑब्जेक्टिव था। अब अशरफ गनी की सरकार खत्म हो चुकी है और अमेरिका वहां से निकल चुका है। इसलिए यह देखना है कि वहां पर सरकार में किसकी सुनवाई होती है, कौन सरकार बनाता है? उनके आपस में जो फर्क हैं, क्या उनको वे सुलझा सकते हैं या वे इतने गहरे हैं कि उनकी आपस में लड़ाई हो सकती है? अभी यह कहना मुश्किल है क्योंकि इसमें बहुत क्लैरिटी नहीं है।
  4. तालिबान ने भारतीय राजदूत से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद भारतीय नीतियां कहां पहुंचती दिखती हैं?दोहा में तालिबान के नुमाइंदों ने हमारे राजदूत के साथ मुलाकात के दौरान उनको कुछ आश्वासन दिए कि आप वहां दूतावास चलाइए। वे चाहते हैं कि दूतावास रहे, और भारत का सहयोग का कार्यक्रम भी चले। साथ में यह भी कहा कि कश्मीर आपका और पाकिस्तान का आपसी मामला है, उसमें हमारी कोई दखलंदाजी नहीं है। उन्होंने कहा कि माइनॉरिटीज से उनकी कोई दुश्मनी नहीं है, अफगानिस्तान के हिंदू और सिख महफूज रहेंगे। अब दोहा में जिन्होंने हमारे राजदूत से बात की, वे तो दोहा में बैठे हैं। जो अफगानिस्तान में बैठे हैं, उनका अलग मामला है। काबुल में कुछ और कह रहे हैं, हेरात में कोई और वारदात हो रही है, लोगर में कुछ और हो रहा है। इसमें मुझे कोई यूनिटी ऑफ कमांड नहीं दिखाई देती। ये तो उसी तरह से है कि आप किसी दुकान में जाएं और एक चीज का आपको चार दाम बताया जाए। ऐसे में आप क्या करेंगे? आप मैनेजर को बुलाएंगे कि सही दाम पता चले। यहां मैनेजर कहां है?
  5. जिस तरह से अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि आइसिस खुरासान को अमेरिका नहीं छोड़ेगा, क्या यह किसी तरह का नैरेटिव बनाने की तैयारी है?इसमें कोई नई बात नहीं है। अमेरिका की लड़ाई तालिबान के साथ तो नहीं थी। जब से तालिबान ने बातचीत शुरू की है, अमेरिका पर अटैक बंद कर दिया है। उनके अटैक अफगानिस्तान की पुलिस, आर्मी, पत्रकार, औरतों पर हुए हैं। उन्होंने अमेरिका के साथ कहां लड़ाई की है तीन साल से? इसलिए प्रेसिडेंट बाइडन का यह कहना कि हमारी लड़ाई आइसिस-के या आइसिस दाएश के साथ है, इसमें कोई नई बात नहीं है।
  6. तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा है कि चीन के पैसे से नया अफगानिस्तान बनेगा। क्या मिडिल ईस्ट की पॉलिटिक्स साउथ एशिया या सेंट्रल एशिया की ओर शिफ्ट हो रही है?चीन और रूस का पहला मकसद ये था कि अमेरिका अफगानिस्तान से निकल जाए, क्योंकि न तो यह चीन को पसंद था और न ही रूस को। इसलिए मॉस्को और पेइचिंग में भी उनके प्रवक्ता बार-बार कह रहे थे कि अमेरिका जाएगा, तभी यहां अमन हो सकता है। अब अमेरिका चला गया है तो देखना यह है कि क्या वाकई अफगानिस्तान में अमन आता है या नहीं। अगर अफगानिस्तान में अभी भी स्थिरता नहीं आती है, तो इस इलाके के जो और देश हैं, चाहे चीन हो या रूस, पाकिस्तान, हिंदुस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान हो, इन सबको चिंता होगी कि वहां के आतंकी ग्रुप वहीं तक सीमित नहीं रहेंगे। वे बाहर भी कुछ न कुछ खुराफात करेंगे। उसका एक नेगेटिव इम्पैक्ट अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में जरूर महसूस होगा। सबको उसे भुगतना पड़ेगा।

फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स

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