Opinion : जगन्नाथ मिश्र के रास्ते पर बेबस नीतीश, 39 साल बाद आवाज़ दबाने की कोशिश

Opinion : जगन्नाथ मिश्र के रास्ते पर बेबस नीतीश, 39 साल बाद आवाज़ दबाने की कोशिश
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बिहार के अपर पुलिस महानिदेशक नैयर हसनैन खान के सर्कुलर से बिहार में भूचाल आ गया है। इसमें सोशल मीडिया पर अधिकारियों, नेताओं, मंत्रियों यानी माननीयों के खिलाफ आपत्तिजनक, अभद्र और भ्रांतिपूर्ण टिप्पणियों को साइबर अपराध मानते हुए कार्रवाई की बात कही गई है। मतलब विरोध को कुचल दो। ये सर्कुलर कानून और संविधान के प्रावधानों पर कितना खरा उतर पाएगा, ये अलग विषय है। पर सरकार की मंशा पर सवाल जरूर उठ रहे हैं। गिरती कानून-व्यवस्था के आगे बेबस पुलिस और आपा खो बैठे सीएम मौलिक अधिकारों का अध्ययन किए बगैर अगर ये हथकंडा अपना रहे हैं तो ये बौखलाहट है।

सवाल तो कई हैं। अगर माननीयों के खिलाफ अभद्र या अमर्यादित टिप्पणी होती है तो सदन में प्रिविलेज मोशन लाने का प्रावधान है। आईपीसी औऱ सीआरपीसी की धाराएं पहले से लागू हैं। फिर ये बचकाना हरकत क्यों हुई है। ऐसे में जब महाराष्ट्र की उन दो बच्चियों की टिप्पणी पर हुई गिरफ्तारी से मचे भूचाल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66-ए को ही निरस्त कर दिया था। क्या ये बारीकियां सीएम नीतीश और डीजीपी एसके सिंघल नहीं समझते? जो बातें इस सर्कुलर के मुताबिक अपराध के दायरे में है उसे श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में 2015 में ही असंवैधानिक करार दिया जा चुका है। 66-ए के तहत कंप्यूटर संचार सेवाओं और कंप्यूटर के जरिए प्रसारित वैसी हर टिप्पणी को गैर कानूनी बताय गया था जिससे किसी का अपमान हो, आपसी दुश्मनी बढ़े, धमकी दी जाए या कोई और प्रतिकूल टिप्पणी की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस हिसाब से किसी भी टिप्पणी की व्याख्या 66ए के दायरे में की जा सकती है। अंत में इस धारा को ही हटा दिया गया।

लोहिया-जेपी के चेले को क्या हुआ है?

फिर नीतीश कुमार तो इमरजेंसी की आग में तप कर निकले हुए नेता हैं। लोकतंत्र में असहमति के पुरोधा। पार्टी चलाने में निरंकुश रहिए पर सातवीं बार सीएम बनने के बाद अपनी वैचारिक बुनियाद को ताखे पर रखने की क्या ज़रूरत आन पड़ी। सोचिए नीतीश जी, आप चाहते तो फौरी कार्रवाई कर इस सर्कुलर को गफलत का नतीजा बता सकते थे। लेकिन नहीं। जीते जी तो जो किया पर आज जॉर्ज फर्नांडिस की आत्मा फिर कराह रही होगी नीतीश बाबू। राममनोहर लोहिया और जेपी के शिष्य आवाज़ दबाने वाले निकलेंगे, ये किसी ने नहीं सोचा होगा। यही नहीं, नीतीश कुमार ने इस सर्कुलर के सपोर्ट में अपने नेताओं को आगे कर दिया है।

ये सर्कुलर दरअसल सिर्फ सोशल मीडिया के बारे में नहीं है, इसमें इंटरनेट का जिक्र किया गया है। ग़ौर करें तो आज कोई टीवी चैनल हो या अखबार उसका डिजिटल प्लेटफॉर्म होता ही है। कारण, आम जनता मोबाइल के जरिए आसानी से उन कंटेंट तक पहुंच सके। फिर कैसे इसे प्रेस सेंशरशिप की कोशिश न मानी जाए। आखिर 39 साल बाद जगन्नाथ मिश्र के रास्ते पर नीतीश कुमार क्यों बढ़ रहे हैं। जरा फ्लैशबैक में चलते हैं।

बिहार का वो काला दिन

वो काला दिन था 31 जुलाई, 1982। बिहार विधानसभा में द बिहार प्रेस बिल को महज पांच मिनट की चर्चा में पारित कर दिया गया। जैसे – जैसे इसके प्रावधानों की खबर बाहर आने लगी वैसे-वैसे विरोध बढ़ता गया। जब भी किसी कानून के खिलाफ देशव्यापी विद्रोह (विरोध कहना कमतर होगा) की चर्चा होगी तो बिहार प्रेस बिल का नाम ऊपर होगा। शुरुआत पत्रकारों ने की और देखते ही देखते विरोधी दलों, ट्रेड यूनियन, शिक्षक यूनियन, युवाओं और मध्य-वर्ग सड़क पर आ गए। तीन सितंबर, 1982 को पत्रकारों ने काम ठप्प कर दिया। न्यूजपेपर इंडस्ट्री के इतिहास में ये सबसे सफल हड़ताल थी। इसके बाद 10 सितंबर को बिहार बंद किया गया। दूसरे राज्यों की विधानसभाओं और संसद की कवरेज करने वाले पत्रकार इस बिल के विरोध में रिपोर्टिंग छोड़ दी। 21 अक्टूबर को द बिहार प्रेस बिल के खिलाफ संसद की ओर मार्च किया गया।

सवाल उठता है कि जगन्नाथ मिश्र सरकार और केंद्र में उनकी ही पार्टी की सरकार इस बिल का बचाव क्यों कर रही थी? इंदिरा गांधी चाहतीं तो झटके में जगन्नाथ मिश्र कुछ कदम उठा सकते थे। जगन्नाथ मिश्र को इस तरह के बिल का आइडिया मिला तमिलनाडु से। वहां एमजी रामचंद्रन ने 1981 में प्रिवेंशन ऑफ ऑब्जेक्शनेबल मैटर्स एक्ट को कड़ा बनाते हुए मनहानि के मामलों को गैर जमानती बना दिया। मतलब पुलिस जब चाहे इस आरोप में किसी संपादक या पत्रकार को गिरफ्तार कर सकती थी। बिहार की कांग्रेस सरकार ने यही तरीका अपनाया। आईपीसी की धारा 292 में एक नया सेक्शन 292-ए जोड़ा गया। अपमानजनक टिप्पणी को इसके तहत अपराध घोषित किया गया। साथी ही कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीड्योर की धारा 455 (1) को संशोधित कर इस अपराध को गैरजमानती बना दिया गया। इस कानून के तहत कोई भी मजिस्ट्रेट या पुलिस एक्शन ले सकता था। 292 ए के दायरे मेंअखबर की खबरों, तस्वीरों औऱ विज्ञापन को शामिल किया गया।

अपमानजनक टिप्पणी लिखने के लिए पत्रकार, प्रकाशक, वितरक सबको दोषी साबित किया जा सकता था। इस कानून के तहत पहली गलती के लिए दो साल और गलती दोहराने पर पांच साल तक की सजा का प्रावधान किया गया। 292 ए को इतना संदिग्ध बना दिया गया कि किसी भी दिन प्रेस पर एक्शन हो सकता था। बिल के मुताबिक नैतिकता पर आघात करने वाली किसी टिप्पणी के लिए कार्रवाई हो सकती है। अब ये परिभाषा अपने आप में ही सरकार की मंशा जाहिर कर रही थी। बिना वारंट गिरफ्तारी का प्रावधान भयानक और आपातकाल सरीखा था। एक सितंबर, 1982 को लखनऊ में जब इंदिरा गांधी से पत्रकारों ने बिहार प्रेस बिल पर सवाल किए तो उन्होंने कहा कि इसका विरोध बोगस है और वो राष्ट्रपति को इस बिल को मंजूरी देने से रोकने के लिए नहीं कहेंगी।

हालांकि देश भर में विरोध प्रदर्शन को देखते हुए एक साल बाद बिहार सरकार ने ये बिल वापस ले लिया।अब सवाल उठता है कि इमरजेंसी के खिलाफ लड़ने वाले और समाजवाद की धारा से सींचे गए जदयू और बीजेपी के नेता कैसे इस सर्कुलर का सपोर्ट कर सकते हैं। जेडीयू नेता केसी त्यागी ने जगन्नाथ मिश्र के कानून को इमरजेंसी के बाद लोकतंत्र की गला घोंटने वाली सबसे बड़ी कार्रवई कही थी। आज वो चुप हैं।

साभार : नवभारत टाइम्स

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