किसान संगठन ने खटखटाया सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा, कहा- जल्दीबाजी में लाए गए कृषि कानून

किसान संगठन ने खटखटाया सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा, कहा- जल्दीबाजी में लाए गए कृषि कानून
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नई दिल्ली
दिल्ली और उसके बॉर्डर पर बैठे किसानों को वहां रहने देने और सुप्रीम कोर्ट में कृषि बिल के खिलाफ दाखिल याचिका में दखल के लिए भारतीय किसान यूनियन (भानु गुट) ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही 12 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ किसान कांग्रेस, डीएमके सांसद तिरुचि शिवा, एमपी मनोज झा समेत अन्य की ओर कृषि बिल के खिलाफ दाखिल याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी कर रखा है। कृषि बिल के वैधता को चुनौती वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट पहले से सुनवाई का फैसला कर चुकी है और उसी अर्जी में भारतीय किसान यूनियन की ओर से दखल की गुहार गई है।

सुप्रीम कोर्ट में भारतीय किसान यूनियन (भानु गुट) की ओर से अर्जी दाखिल कर कहा गया है कि कृषि कानून मनमाना है और ये गैर संवैधानिक है साथ ही ये कानून किसान विरोधी है। याचिकाकर्ता की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि नया कृषि कानून कृषि क्षेत्र को प्राइवेटाइजेशन के हाथों में देने की तैयारी है। इस कानून से मल्टी नेशनल कंपनियों को फायदा होगा और इस कानून के तहत मल्टी नैशनल कंपनियां बिना किसी रोक के कृषि उत्पाद का एक्सपोर्ट करेंगे। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि ये कानून जल्दीबाजी में लाया गया और कोई विचार विमर्श नहीं हुआ।

केन्द्र को जारी किए गए थे नोटिस
प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबड़े, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमणियन की पीठ ने 12 अक्टूबर को तीन कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली राजद सांसद मनोज झा, द्रमुक सांसद तिरूचि शिवा और छत्तीसगढ़ किसान कांग्रेस के राकेश वैष्णव की याचिकाओं पर केन्द्र को नोटिस जारी किये थे। केन्द्र को चार सप्ताह के भीतर नोटिस का जवाब देना था। अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने उसी समय पीठ से कहा कि इन सभी याचिकाओं पर केन्द्र एक समेकित जवाब दाखिल करेगा।

संसद के मानसून सत्र में तीन विधेयक – कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020, कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 पारित किये गये थे। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी मिलने के बाद तीनों विधेयकों को कानून का दर्जा मिल गया था और ये 27 सितंबर से प्रभावी हो गये थे। इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि संसद द्वारा पारित कृषि कानून किसानों को कृषि उत्पादों का उचित मुल्य सुनिश्चित कराने के लिये बनाई गई कृषि उपज मंडी समिति व्यवस्था को खत्म कर देंगे।

‘किसानों का बड़े कापोर्रेट घरानों द्वारा शोषण की संभावना’
वैष्णव की ओर से दलील दी गयी है कि ये कानून राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप करते हैं और ऐसी स्थिति में शीर्ष अदालत को इन पर विचार करना चाहिए। अधिवक्ता फौजिया शकील के माध्यम से याचिका दायर करने वाले मनोज झा ने कहा कि इन कानून से सीमांत किसानों का बड़े कापोर्रेट घरानों द्वारा शोषण की संभावना बढ़ जायेगी। याचिका में कहा गया है कि यह कार्पोरेट के साथ कृषि समझौते पर बातचीत की स्थिति असमानता वाली है और इससे कृषि क्षेत्र पर बड़े घरानों का एकाधिकार हो जायेगा।

द्रमुक नेता तिरूचि शिवा ने अपनी याचिका में कहा है कि ये नये कानून पहली नजर में ही असंवैधानिक, गैरकानूनी और मनमाने हैं। उन्होंने दलील दी है कि ये कानून किसान और कृषि विरोधी हैं। याचिका में कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान बनाये गये इन कानूनों का एकमात्र मकसद सत्ता से नजदीकी रखने वाले कुछ कार्पोरेशन को लाभ पहुंचाना है। इस याचिका में कहा गया है कि ये कानून कृषि उपज के लिये गुटबंदी और व्यावसायीकरण का मार्ग प्रशस्त करेंगे और अगर यह लागू हुआ तो यह देश को बर्बाद कर देगा क्योंकि बगैर किसी नियम के ये कार्पोरेट एक ही झटके में हमारी कृषि उपज का निर्यात कर सकते हैं।

केरल से कांग्रेस के एक सांसद टीएन प्रतापन ने भी नये किसान कानून के तमाम प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुये न्यायालय में याचिका दायर कर रखी है। दूसरी ओर, सरकार का दावा है कि नये कानून में कृषि करारों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क का प्रावधान किया गया है। इसके माध्यम से कृषि उत् पादों की बिक्री, फार्म सेवाओं, कृषि का कारोबार करने वाली फर्म, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्त करता है।

(भाषा से इनपुट)

साभार : नवभारत टाइम्स

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