पाकुड़ का जमींदार, कलकत्ता में हत्या, 1900 km दूर लैब से कनेक्शन…88 साल पहले जैविक हथियार से मर्डर की कहानी

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नवंबर 1933। कोलकाता (तब कलकत्ता) का बेहद व्यस्त हावड़ा रेलवे स्टेशन। 20 साल के एक नौजवान अमरेंद्र चन्द्र पाण्डेय को अचानक बांह पर कुछ चुभन सी महसूस हुई। पास से खद्दर में लिपटा एक शख्स तेजी से भीड़ में ओझल हो जाता है। युवक पाकुड़ के एक बड़े जमींदार परिवार का वारिस है। जमींदार क्या, शाही परिवार कहिए। वह घर पहुंचकर बीमार पड़ जाता है। लाख इलाज के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका। एक हफ्ते बाद ही उसकी मौत हो जाती है। यह भारत में बायोलॉजिक वेपन यानी जैविक हथियार से हत्या का संभवतः पहला डॉक्युमेंटेड केस था। करीब 9 दशक पहले पूरी दुनिया को चौंका देने वाले उस ‘जर्म्स मर्डर’ के बारे में बीबीसी वर्ल्ड न्यूज ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में विस्तार से बताया है।

धोखे से जहर देकर प्रतिद्वंद्वी को मारने के अनगिनत किस्से हैं। हत्या भी कर दें और किसी को शक भी न हो। महाभारत काल में दुर्योधन ने खीर में कालकूट विष मिलाकर भीम को मारने की कोशिश की थी। विलियम शेक्सपीयर की लिखी मशहूर ट्रैजडी ‘हेमलेट’ में नायक हेमलेट के पिता को उसके ही भाई क्लॉडियस कान में जहर डालकर उस वक्त मार देता है जब वह बगीचे में गुनगुनी धूप के नीचे सो रहा होता है। आज भी दुश्मन को जहरीले सांप से डंसवाकर मार डालने जैसी खबरें आ ही जाती हैं।

मर्डर जो मर्डर नहीं लगे!
दुश्मन को रास्ते से हटाने के लिए जहर का इस्तेमाल सदियों से होता रहा है। लेकिन, जैविक हथियार के रूप में किसी बीमारी, वायरस या जर्म का इस्तेमाल करके दुश्मन की हत्या का संभवतः पहला डॉक्युमेंटेड मामला पिछली सदी में सामने आया। महाभारत या हेमलेट की तरह ही। राजपाट के लिए हत्या या हत्या की कोशिश। फर्क बस ये कि तब जहर का इस्तेमाल हुआ था और इसमें बायोलॉजिकल वेपन का। साइंस का ऐसा इस्तेमाल कि दुश्मन मार दिया जाए और दुनिया उसे बीमारी से मौत समझे। पेश है बीसवीं सदी में पाकुड़ के जमींदार परिवार में हुई उस हत्याकांड की कहानी, जो तब दुनियाभर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।

कहानी है तत्कालीन बंगाल प्रांत के तहत आने वाले पाकुड़ के एक जमींदार परिवार की। पाकुड़ बाद में बिहार और अब आखिरकार झारखंड का हिस्सा है। अमरेंद्र चन्द्र पाण्डेय पाकुड़ के इसी जमींदार परिवार से थे।

बांह में अचानक महसूस हुई चुभन और…
26 नवंबर 1933। जाड़े का मौसम। 20 साल के अमरेंद्र चन्द्र पाण्डेय हावड़ा के व्यस्त रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म की सीढ़िया चढ़ रहे हैं। उन्हें पाकुड़ के लिए ट्रेन पकड़नी है। साथ में कुछ करीबी दोस्त और रिश्तेदार हैं। अचानक खद्दर की शॉल ओढ़ा एक शख्स पाण्डेय से टकराता है। तभी उनकी दायीं बांह पर चुभन सी महसूस होती है। वह चिल्ला उठते हैं- किसी ने मुझे कुछ चुभा दिया। साथ चल रहे दोस्त-रिश्तेदार जबतक खद्दर ओढ़े शख्स की तलाश करते, तब तक वह भीड़ में ओझल हो जाता है। पाण्डेय की बांह पर एक बहुत ही छोटा सा निशान बना है, जैसे कोई सूई चुभाई गई हो।

दोस्त अमरेंद्र को डॉक्टर को दिखाने की सलाह देते हैं। तभी अचानक अमरेंद्र के सौतेले भाई बेनोयेंद्र पाण्डेय को वहां आते देख सभी चौंक जाते हैं। वह उम्र में अमरेंद्र से करीब 10 साल बड़े हैं। बेनोयेंद्र बोल उठते हैं- ये कौन सी बड़ी बात है। कोई कीड़ा-मकोड़ा काट लिया होगा। घर चलते हैं, ये कोई ऐसी बात नहीं कि डॉक्टर को दिखाएं। फिर सभी ट्रेन से पाकुड़ के लिए रवाना हो जाते हैं।

घर पहुंचने पर अमरेंद्र को बुखार चढ़ जाता है। शुरुआत में घरेलू नुस्खे अपनाए गए लेकिन जब हालत ज्यादा बिगड़ने लगी तो परिवार ने कलकत्ता में इलाज का फैसला किया।

रहस्यमय बीमारी, बिगड़ने लगी हालत और अंत में मौत
चौथे दिन अमरेंद्र एक बार फिर कलकत्ता में थे। ठिकाना था रासबिहारी इलाके में स्थित पाकुड़ पैलेस गेस्ट हाउस। उस वक्त की बंगाल की मशहूर फीजिशियन डॉक्टर नलिनी रंजन सेनगुप्ता को इलाज के लिए बुलाया गया। अचानक डॉक्टर नलिनी की नजर अमरेंद्र की बांह पर हाइपोडर्मिक नीडल के निशान पर पड़ी। तत्काल ब्लड टेस्ट के लिए सैंपल लिया गया। लेकिन तब तक मरीज की हालत बहुत बिगड़ चुकी थी। तेज बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। हाथ सूज गए थे।

इस बीच अमरेंद्र के सौतेले भाई बेनोयेंद्र अपनी पसंद के एक डॉक्टर को लेकर पहुंचते हैं। परिवार को भरोसा देते हैं कि डॉक्टर बहुत काबिल हैं और अमरेंद्र जल्द ही ठीक हो जाएंगे। लेकिन 3 दिसंबर की रात को मरीज कोमा में पहुंच जाता है और अगले दिन उसकी मौत हो जाती है। डॉक्टर इसे न्यूमोनिया से मौत का मामला बताते हैं। अंत्येष्टि भी हो जाती है। लेकिन लैब में भेजे गए ब्लड सैंपल की जांच रिपोर्ट से कहानी में बड़ा ट्विस्ट आ जाता है।

लैब रिपोर्ट से कहानी में आया ट्विस्ट
लैब रिपोर्ट से पता चलता है कि अमरेंद्र के खून में यर्सिनिया पेस्टिस नाम का खतरनाक बैक्टिरिया मौजूद था। ऐसा बैक्टिरिया जिसने 1896 से 1918 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में तबाही मचाई थी। तब प्लेग ने सवा करोड़ जिंदगियों को लील लिया था। यर्सिनिया पेस्टिस बैक्टिरिया से मौत की बात से भारत से लेकर ब्रिटेन तक हड़कंप मच जाता है। मौत की जांच के आदेश दिए जाते हैं। जब सच्चाई सामने आती है तो सभी दंग रह जाते हैं। जिसे न्यूमोनिया से मौत का मामला समझा जा रहा था, वह मर्डर का मामला निकला। जैविक हथियार से हत्या का मामला।

बायोलॉजिक वेपन से मर्डर का ये मामला दुनियाभर के अखबारों की सुर्खियां बना। टाइम मैगजीन ने इस पर ‘मर्डर विद जर्म्स’ नाम से कवर स्टोरी की तो सिंगापुर के स्ट्रेट टाइम्स ने इसे ‘बांह में चुभन का रहस्य’ के तौर पर बताया।

कलकत्ता पुलिस की जांच ने इस अनोखे मर्डर मिस्ट्री का राजफाश कर दिया। पाकुड़ के जमींदार की कलकत्ता में हत्या होती है और हथियार बनता है 1900 किलोमीटर दूर मुंबई (तब बॉम्बे) के एक लैब से मंगाया गया बैक्टीरिया। हत्या के केंद्र में जमींदार परिवार के भीतर का सत्ता संघर्ष।

पिता की मौत के बाद बेनोयेंद्र पाण्डेय की नजर जमींदार परिवार की सत्ता संभालने पर थी। लेकिन अधिकार मिला सौतेले छोटे भाई अमरेंद्र पाण्डेय को। वजह यह कि परिवार में बेनोयेंद्र की छवि एक गैरजिम्मेदार शख्स की थी। बिल्कुल नकारे जैसी छवि। तभी से बेनोयेंद्र अपने ही सौतेले छोटे भाई को खत्म करने का मन बना लिया।

सौतेले भाई ने ऐसे रची साजिश
बीबीसी ने कोर्ट डॉक्युमेंट्स के हवाले से अपनी रिपोर्ट में बताया है कि अमरेंद्र को मारने की साजिश संभवतः 1932 में उस वक्त रची गई थी जब बेनोयेंद्र के एक करीबी डॉक्टर ने लैब से बैक्टीरिया हासिल करने की नाकाम कोशिश की थी। बेनोयेंद्र ने अमरेंद्र की हत्या से पहले कम से कम 4 बार उन्हें मारने की नाकाम कोशिश की थी। एक बार बैक्टीरिया वाले चश्मे से भी सौतेले भाई को मारने की कोशिश की थी लेकिन तब अमरेंद्र बीमार होने के बाद ठीक हो गए थे।

किसी हॉलिवुड मर्डर मिस्ट्री फिल्म के अंदाज में की गई हत्या की इस साजिश में तारानाथ भट्टाचार्य नाम का एक डॉक्टर भी शामिल था जो बेनोयेंद्र का जिगरी यार था। उसी ने बैक्टीरिया हासिल कर उसे जैविक हथियार का रूप दिया। मई 1932 में भट्टाचार्य ने बॉम्बे के हॉफकिन इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर से बैक्टीरिया के लिए संपर्क किया था लेकिन उसे दो टूक जवाब मिला- नहीं मिल सकता। बंगाल के सर्जन जनरल से अनुमति लेकर आइए। हॉफकिन इंस्टिट्यूट भारत का इकलौता ऐसा लैब था जहां यर्सिनिया पेस्टिस बैक्टीरिया के कल्चर रखे गए थे।

उसी महीने भट्टाचार्य ने कलकत्ता के एक डॉक्टर से संपर्क किया। उसने दावा किया कि उसने प्लेग का इलाज ढूंढ लिया है और वह बैक्टीरिया कल्चर पर इसका टेस्ट करना चाहता है। दरअसल, भट्टाचार्य को कहीं से पता चल गया था कि उस डॉक्टर के यहां बैक्टीरिया कल्चर मौजूद है जिस पर रिसर्च किया जा रहा है। डॉक्टर ने भट्टाचार्य को लैब में काम करने की इजाजत दे दी लेकिन हॉफकिन इंस्टिट्यूट से मंगाए गए बैक्टीरिया कल्चर से दूर रहने को कहा।

1933 में भट्टाचार्य ने हॉफकिन इंस्टिट्यूट को लेटर लिखा कि उसने प्लेग का इलाज ढूंढ लिया है, बस कुछ टेस्ट के लिए उसे लैब में काम करने की इजाजत दी जाए। इस बार उसे इजाजत मिल गई। बेनोयेंद्र भी मुंबई पहुंच गया। वहां दोनों ने इंस्टिट्यूट के दो अधिकारियों को बैक्टीरिया कल्चर के लिए रिश्वत देने की भी कोशिश की। लेकिन बात नहीं बनी। भट्टाचार्य और बेनोयेंद्र का मुंबई में रुकने का इकलौता मकसद प्लेग बैक्टीरिया कल्चर हासिल करना था। आखिरकार वे किसी तरह आर्थर रोड इन्फेक्शियस डिसीज हॉस्पिटल से इसे हासिल करने में कामयाब हो गए और कलकत्ता लौट आए।

कातिल सौतेले भाई को सजा, साजिश में डॉक्टर भी था शामिल
अमरेंद्र पाण्डेय हत्याकांड के करीब 3 महीने बाद फरवरी 1934 में पुलिस ने भट्टाचार्य और बेनोयेंद्र को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस को बोनयेंद्र के यात्रा दस्तावेजों, मुंबई के होटल के बिलों, होटल के रजिस्टर में उसकी हैंडराइटिंग, लैब को भेजे संदेश वगैरह से सुराग मिला था।

दोनों के खिलाफ मुकदमा चला। ट्रायल कोर्ट ने बेनोयेंद्र और भट्टाचार्य को हत्या की साजिश का दोषी ठहराते हुए मौत की सजा दी। 1936 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दी। इस मामले में गिरफ्तार हुए तीन और डॉक्टर सबूतों के अभाव में बरी हो गए।

फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स

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