'कम से कम एक गुंबद बचा लीजिए…', 6 दिसंबर 1992 को PM नरसिम्‍हा राव के पास आया वह फोन

'कम से कम एक गुंबद बचा लीजिए…', 6 दिसंबर 1992 को PM नरसिम्‍हा राव के पास आया वह फोन
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हेमंत शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
छह दिसंबर 1992 को उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की जो बैठक बुलाई गई, उसमें प्रधानमंत्री गुमसुम थे। माखनलाल फोतेदार कांग्रेस के खानदानी निष्ठावान थे। उनकी निष्ठा पार्टी में कम, खानदान में ज्यादा थी। वह अपनी आत्मकथा ‘चिनार लीव्स’ में लिखते हैं , ‘मैंने प्रधानमंत्री से फोन पर अनुरोध किया था कि वह सुरक्षा बलों से कहें कि फैजाबाद में तैनात वायुसेना के हेलिकॉप्टरों से आंसू गैस के गोले चला कारसेवकों को खदेड़ें। राव साहब ने कहा, यह मैं कैसे कर सकता हूं, यह राज्य सरकार का काम है। मैंने उनसे फिर कहा, कम से कम एक गुंबद तो बचा लीजिए, ताकि बाद में हम उसे शीशे में रख लोगों को दिखला सकें कि बाबरी मस्जिद बचाने की हमने पूरी कोशिश की। प्रधानमंत्री चुप रहे और थोड़ी देर बाद बोले, फोतेदार जी! मैं आपको दोबारा फोन करता हूं।’

राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात के कारण फोतेदार मंत्रिमंडल की उस बैठक में 15 मिनट देरी से पहुंचे। वहां सब चुप थे। फोतेदार कहते हैं, ‘सन्नाटा देख मैंने पूछा, सबकी बोली क्यों बंद है?’ माधव राव सिंधिया बोले, ‘आपको नहीं पता, बाबरी मस्जिद गिरा दी गई है?’ मैंने सभी मंत्रियों के सामने कहा, ‘राव साहब, इसके लिए सिर्फ आप जिम्मेदार हैं। प्रधानमंत्री ने एक भी शब्द नहीं कहा।’ मंत्रिमंडल के वरिष्ठ साथी अर्जुन सिंह इस पूरे मामले में राव साहब के कटु आलोचक थे। जैसे वीएचपी ढांचा गिराना चाहती थी, वैसे ही अर्जुन सिंह इस बहाने नरसिंह राव को गिराने में लगे थे। उनकी लोमड़ी-वृत्ति नरसिंह राव के अयोध्या के सवाल पर फेल होने का इंतजार कर रही थी।

माखनलाल फोतेदार इसकी तस्दीक करते हैं। वह ‘चिनार लीव्स’ में लिखते हैं, ‘अर्जुन सिंह को बहुत अच्छी तरह पता था कि 6 दिसंबर को क्या होने जा रहा है, लेकिन वह तब भी दिल्ली छोड़कर पंजाब चले गए। मेरा मानना है कि 6 दिसंबर को मंत्रिमंडल में उनकी गैर मौजूदगी और फिर मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के उनके पैंतरे ने राजनीतिक रूप से उनको बहुत नुकसान पहुंचाया। वह मेरे नजदीकी बने रहे, लेकिन मुझे मालूम था, उनमें चुनौतियों को स्वीकार करने का माद्दा नहीं था।’

कहां चूके थे रावपूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नरसिंह राव के लंबे समय तक सहयोगी रहे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द टर्ब्युलंट ईयर्स’ में लिखा, ‘बाबरी ध्वंस को न रोक पाना पीवी की सबसे बड़ी असफलता थी। उन्हें दूसरे दलों से बातचीत की जिम्मेदारी नारायण दत्त तिवारी जैसे वरिष्ठ नेता को सौंपनी चाहिए थी। एसबी चव्हाण सक्षम वार्ताकार जरूर थे, पर वह उभर रहे हालात के भावनात्मक पहलू को नहीं समझ पाए। पी आर कुमार मंगलम भी युवा और अपेक्षाकृत अनुभवहीन थे। वह पहली बार राज्यमंत्री बने थे।’ प्रणब मुखर्जी आगे लिखते हैं, ‘मैंने दशकों तक नरसिंह राव के साथ काम किया है। मुझे उनका चेहरा पढ़ने की जरूरत नहीं थी। मैं उनके दुख और निराशा को साफ महसूस कर रहा था।’

पीवी नरसिंह राव इन सवालों का खुद जवाब देते हैं। वह अपनी किताब ‘6 दिसंबर’ में लिखते हैं, ‘मेरे ऊपर सबसे ज्यादा सवालों की बौछार इस मुद्दे पर होती है कि आपने 6 दिसंबर, 1992 की तोड़-फोड़ से बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए पहले ही उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगाया?’ नरसिंह राव अपनी लाचारी बताते हैं, ‘अनुच्छेद 356 के तहत किसी सरकार को तभी हटा सकते हैं, जब कानून और व्यवस्था भंग हो गई हो नाकि जब कानून और व्यवस्था के भंग होने का अंदेशा हो।’ वह कहते हैं, ‘ऐसे वक्त राज्यपाल की रिपोर्ट ही आधार होती है। तीन रोज पहले ही राज्यपाल बी सत्यनारायण रेड्डी ने जो रिपोर्ट भेजी, उसे पढ़ने के बाद कौन सरकार राष्ट्रपति शासन लगाती।’ फिर सत्यनारायण रेड्डी कोई संघ के आदमी नहीं थे। वह समाजवादी पृष्ठभूमि के थे। तेलुगु देशम से आते थे।

राज्यपाल ने कहा था, ‘ऐसी रिपोर्ट हैं कि बड़ी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे हैं, पर वे शांतिपूर्ण हैं। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट को लिखकर दिया है, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया है कि राज्य सरकार विवादित ढांचे की संपूर्ण सुरक्षा करेगी और विवादित ढांचे की सुरक्षा के लिए पर्याप्त बंदोबस्त किए भी गए हैं।’

राज्यपाल ने मना किया थाराज्यपाल की जो रिपोर्ट थी, वह कुछ यूं थी, ‘मेरी राय में अभी वह उपयुक्त समय नहीं आया है कि उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने जैसा कोई सख्त कदम उठाया जाए या राज्य विधानसभा भंग कर दी जाए या राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए। अगर ऐसा किया जाता है तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इससे न केवल राज्य में, बल्कि देश के अन्य भागों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा फैल सकती है। विवादित ढांचे को क्षति पहुंचने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए मेरी राय में इस मामले पर हमें बहुत सतर्कता बरतनी चाहिए और विभिन्न विकल्पों पर सोच-विचारकर ही इस मुद्दे पर किसी भी निर्णय के पक्ष-विपक्ष पर गौर करना चाहिए। हमें जल्दबाजी में लिये गए निर्णय से बचना चाहिए।’

केंद्र सरकार को भेजी गई यह राज्यपाल की गोपनीय रिपोर्ट थी। ऐसी स्थिति में नरसिंह राव के सामने विकल्प नहीं थे। सिवाय इसके कि वह संघीय ढांचे की मर्यादाओं के अनुसार राज्य सरकार के भरोसे और वायदे पर विश्वास करते। हालांकि उनका यह भरोसा एक राजनीतिक ‘मिस कैलकुलेशन’ था, जिसका अवसाद उन्हें अंत तक बना रहा। वह सत्यनारायण रेड्डी से भी नाराज थे, इसीलिए वह छह दिसंबर को उनका फोन नहीं ले रहे थे।

(शर्मा की पुस्तक- ‘युद्ध में अयोध्या’ प्रकाशक प्रभात प्रकाशन से साभार)

फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स

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