राजनीति का दिलचस्प किस्सा: मुलायम सिंह यादव के चलते छिनी थी वीपी सिंह की कुर्सी
1980 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह को सबसे ज्यादा दिक्कतें मुलायम सिंह यादव की ओर से मिलीं। दस्यु उन्मूलन के उनके कार्यक्रम में सबसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की सक्रियता ही थी। वीपी सिंह ने दस्यु उन्मूलन अभियान तब शुरू किया था जब डकैतों ने उनके न्यायाधीश भाई की हत्या कर दी थी।
वैसे तो वीपी सिंह साफ-सुथरी छवि के नेता थे लेकिन राजनैतिक विरोधियों से निपटने की कला में माहिर थे, वह भी बहुत ही महीन तरीके से। राजीव गांधी सरकार के दौरान जब ‘राजीव चौकड़ी’ की सक्रियता के कारण उन्हें वित्त मंत्रालय से मुक्त किया गया तो रक्षा मंत्रालय संभालते ही उन्होंने अपने ‘महीन ऑपरेशन’ को अंजाम देना शुरू कर दिया। इसी वजह से वह घटनाक्रम शुरू हुआ जिसमें आखिरकार कांग्रेस और राजीव गांधी को सत्ता से बाहर होना पड़ा।
1980 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह को सबसे ज्यादा दिक्कतें मुलायम सिंह यादव की ओर से मिलीं। दस्यु उन्मूलन के उनके कार्यक्रम में सबसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की सक्रियता ही थी। वीपी सिंह ने दस्यु उन्मूलन अभियान तब शुरू किया था जब डकैतों ने उनके न्यायाधीश भाई की हत्या कर दी थी।
कांग्रेस ने जाने के बाद भी मुलायम से रिश्ते नहीं हुए सामान्य
वीपी सिंह के कांग्रेस से बाहर आ जाने के बाद भी मुलायम सिंह के साथ उनके रिश्ते सामान्य नहीं हो पाए। अमिताभ बच्चन के त्यागपत्र से रिक्त हुई इलाहाबाद लोकसभा सीट से वीपी सिंह संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार थे लेकिन मुलायम सिंह के नाकारात्मक रुख का एहसास उन्हें निरंतर होता रहता था। बहुगुणा, चंद्रशेखर और मुलायम की तिकड़ी नहीं चाहती थी कि वीपी सिंह जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनें। अगर चंद्रशेखर और मुलायम सिंह अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं के दबाव में न होते तो जनता दल का निर्माण भी शायद इस स्वरूप में होना मुमकिन नहीं हो पाता।
संदेह कभी निकल नहीं सका मन से
मुलायम सिंह के मन में भी आशंका हमेशा बनी ही रही। मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम सिंह को वीपी सिंह खेमे के अधिकांश विधायकों का समर्थन मिला फिर भी वह दिल से यह संदेह नहीं निकाल सके कि अजित सिंह की उम्मीदवारी के पीछे वीपी सिंह का हाथ था। अयोध्या-राम जन्म भूमि विवाद को सुलझाने के लिए किए जा रहे प्रयासों को भी मुलायम सिंह संदेह की दृष्टि से देखते थे। उन्हें हमेशा लगता रहता था कि पर्दे के पीछे वीपी सिंह उन्हें अपदस्थ करने के प्रयासों में लगे हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का यह भी परिणाम हुआ कि समझौते के लिए किए गए सार्थक और पारदर्शी प्रयासों में भी दोनों को षड्यंत्रों की बू आती थी।
7 अगस्त 1990 वीपी सिंह ने लागू किया आरक्षण
7 अगस्त 1990 को पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की घोषणा कर वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे जोखिम भरा दांव चला। वीपी सिंह- देवीलाल आंतरिक कलह में भी मुलायम सिंह का रुख वीपी सिंह के विरोध में बना रहता था। यद्यपि मंडल आंदोलन ने देवीलाल और मुलायम सिंह के रास्ते अलग कर दिए थे लेकिन राजनैतिक प्रतिबद्धता उन्हें एक पाले में समेटे रही।
वीपी सिंह को सबसे ज्यादा दिक्कतें मुलायम सिंह यादव की ओर से
1980 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह को सबसे ज्यादा दिक्कतें मुलायम सिंह यादव की ओर से मिलीं। दस्यु उन्मूलन के उनके कार्यक्रम में सबसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की सक्रियता ही थी। वीपी सिंह ने दस्यु उन्मूलन अभियान तब शुरू किया था जब डकैतों ने उनके न्यायाधीश भाई की हत्या कर दी थी। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने दस्यु उन्मूलन के नाम पर पिछड़े वर्ग के युवाओं को पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने को ऐसा मुद्दा बनाया कि कांग्रेस को बैकफुट पर आना पड़ा और अंतत: वीपी सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ा। वीपी सिंह यूपी की नौकरशाही और कांग्रेस की प्राणघातक आंतरिक गुटबाजी से अज्ञात थे। मुलायम सिंह ने इन्हें अपने औजार के रूप में इस्तेमाल किया था।
वीपी सिंह को हटाकर चंद्रशेखर को पीएम बनाने में मुलायम की भूमिका
हरियाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली देहात में मंडल विरोध की बागडोर देवीलाल समर्थकों के हाथों में थी। वे जाटों को आरक्षण के कोटे में शामिल न करने को लेकर क्षुब्ध थे। अंतत: जनता दल के विभाजन की रेखा स्पष्ट हो गई। धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की पक्षधर ताकतों के प्रतीक के रूप में वीपी सिंह स्थापित हुए लेकिन लोकसभा में वे अपना बहुमत खो चुके थे। उनकी जगह चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाने में मुलायम सिंह समर्थक सांसदों की विशेष भूमिका रही।
मंडल कमीशन के बाद मुलायम को चुकानी पड़ी थी बड़ी कीमत
1991 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हें मात्र 4 लोकसभा सांसद और 27 विधानसभा सदस्यों से संतोष करना पड़ा। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद कई प्रकार की प्रताड़नाओं का भी सामना करना पड़ा। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद यूपी समेत कई विधानसभाएं भंग कर दी गईं और यूपी में पुन: चुनाव की सरगर्मियां तेज हो गईं। दिसंबर में नई विधानसभा के लिए राजनैतिक बिसात बिछने लगी।
वीपी सिंह का फैसला
इसी बीच वीपी सिंह ने अचानक यह घोषणा कर सभी को चकित कर दिया कि वह तब तक दिल्ली में प्रवास नहीं करेंगे जब तक मंडल अनुशंसाओं के तहत पहला लाभार्थी नौकरी प्राप्त नहीं करेगा। उन्होंने अपनी राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र गाजियाबाद को बनाया। उनके समूचे प्रबंधन की जिम्मेदारी मुझ पर थी। वीपी सिंह बहुत चतुराई के साथ यूपी चुनाव पर नजर रखे हुए थे। एक तरफ वे धर्मनिरपेक्ष मतों में बंटवारे का विरोधी बने हुए थे और दूसरी तरफ मुलायम सिंह को सबक सिखाने के जुगाड़ में थे।
रोने लगे थे एसआर बोम्मई
जनता दल की व्यापक एकता के प्रयासों को गति देने के लिए उन्होंने एक बैठक 29-30 दिसंबर 1993 को गाजियाबाद में बुलाई जिसमें जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष एसआर बोम्मई के अलावा रामकृष्ण हेगड़े, लालू प्रसाद यादव, बीजू पटनायक, मुफ्ती मोहम्मद सईद, शरद यादव, राम विलास पासवान, चौ. अजीत सिंह, रशीद मसूद और मधु दंडवते तथा समाजवादी जनता पार्टी से चंद्रशेखर, देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला और यशवंत सिन्हा शामिल थे। वीपी सिंह पहले अपने घर को दुरुस्त करना चाहते थे। इसलिए जनता दल की राजनीतिक मामलों की कमेटी की आहूत बैठक में उन्होंने एसआर बोम्मई की निष्क्रियता को देखते हुए मुफ्ती मोहम्मद सईद को दल का नया अध्यक्ष चुनने का प्रस्ताव रख दिया। लगभग सभी नेता उनके नाम पर सहमत थे लेकिन बोम्मई ने कहा कि वह दिल का ऑपरेशन कराकर लौटे हैं। डॉक्टर की तरफ से मिली आराम की हिदायत के कारण वह मीटिंग नहीं कर पा रहे हैं। अपने भाषण के दौरान वह भावुक होकर रोने लगे। बैठक का वातावरण गंभीर हो गया। ऐसे में उन्हें पद से नहीं हटाया जा सका। एसआर बोम्मई पार्टी के अध्यक्ष बने रहे। मगर इसी बीच मुलायम सिंह ने ऐसा धोबिया पाट चला कि सब चित्त हो गए। वह बीएसपी से गठबंधन कर चुनाव में उतरे, बीजेपी को पराजित कर दिया और फिर से यूपी के मुख्यमंत्री बन गए।
फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स