छोटे देशों को कर्ज, क्या है चीन की चाल?

छोटे देशों को कर्ज, क्या है चीन की चाल?
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महेंद्र कुमार सिंह
भारत और चीन के बीच लद्दाख में काफी दिनों से चल रहा विवाद अपने चरम पर पहुंच गया। 15-16 जून की रात लद्दाख के गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं के बीच हुए खूनी संघर्ष में भारतीय सेना के एक अफसर और 19 जवान शहीद हो गए। गौरतलब ये भी है कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना सीमा पर बिना गोली, बारूद चले हुई। सूत्रों के हवाले से खबर है कि चीन के लगभग 40 जवान हताहत हुए हैं।

ऐसी खबर अगर भारत-पाकिस्तान सीमा से आती तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती लेकिन लद्दाख की घटना के बाद ये बात साफ होने लगी है की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सेना का आचरण पाकिस्तान की सेना की तरह गैर पेशेवर और धोखेबाजी से भरा हो चला है। दशकों से चीन पाकिस्तान को मोहरा बनाकर जो कूटनीतिक खेल खेल रहा था वह पूरी दुनिया के सामने बेनकाब हो गया है। मोदी सरकार की कूटनीतिक रणनीति भारत-चीन संबंध को किसी और पड़ोसी देश, खास कर पाकिस्तान के साथ जोड़ कर ना देखे जाने की रही है।

खासकर आज के संकटकालीन समय में जब पूरा विश्व चीन में ही जन्मे वुहान वायरस की महामारी से जूझ रहा है तब चीन ने अचानक से आक्रामक रूप क्यों धारण कर लिया? कोरोना वैश्विक महामारी की वजह से वैश्विक आर्थिक मंदी, सिमटती अर्थव्यवस्था, चीन की गिरती हुई वैश्विक राजनीतिक साख और विश्वसनीयता के साथ ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट, वन रोड (ओबीओआर)’ परियोजना भी सवालिया घेरे में है।

चीन के एक शोध संस्थान चाइना इंस्टिट्यूट ऑफ कंटेम्पररी इंटरनैशनल रिलेशन्स के एक सर्वे की मानें तो चीनी वायरस की वजह से चीन की छवि, उसकी साख और विश्वसनीयता आज दुनिया की नजरों में गिरकर फिर वहीं पहुंच गई है जहां वह 1989 के त्याआनमेन स्क्वायर नरसंहार के वक्त थी। जानकारों का मानना है कि घरेलू राजनीति में भी अंदरूनी और बाहरी तौर पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने की गुंजाइश हो उससे पहले ही राष्ट्रपति जिनपिंग ने वैश्विक पटल पर नया आक्रमक रवैया अपना लिया है।

भारत के साथ सीमा पर उग्र तनाव, अमेरिका के साथ उग्र ट्रेड वॉर, हॉन्ग-कॉन्ग, ताइवान और ऑस्ट्रेलिया के साथ टकराव, दक्षिणी चीन सागर में तनाव और कोरोना संकट को लेकर धूमिल होती वैश्विक छवि के बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सेना को निर्देश दिया कि वह सैनिकों की ट्रेनिंग को मजबूत करे और युद्ध के लिए तैयार रहें। इससे सवाल उठता है कि आखिर चीनी राष्ट्रपति और उनकी इस आक्रामक नीतियों की मंशा क्या है और किसी-किस के साथ भिड़ने की तैयारी कर रहा है चीन?

चीनी सम्राज्यवादी डिजाईन?
कई जानकारों का यह मानना है कि ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया चीनी वायरस से जूझ रही है ऐसे में उसका बढ़ता आक्रामक रवैया एक दूरगामी साम्राज्यवादी मॉडल की अवधारणा के रूप में सामने आ रहा जो कि पूंजीवाद (जिसे वामपंथी अमीरों के सम्राज्यवाद कहते हैं) से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित होगा।
आज अपने आक्रामक विस्तारवादी नीतियों के कारण दुनिया के लिए सही मायनों में खतरा अमेरिका नहीं बल्कि चीन है।

चीन अपने विशाल उद्योगों के साथ अपने उत्पादों के लिए बाजार में मांग बढ़ा रहा है और अपने विशाल 3.2 ट्रिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा रिजर्व के साथ लाभदायक निवेश के नए रास्तों की तलाश कर रहा है और इसके लिए उसका मुख्य हथियार है बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना। चीनी आज आक्रामक साम्राज्यवादी हैं और दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।

चीन का यह विस्तारवाद वर्तमान में सैन्य स्वरूप का नहीं है क्योंकि उसका रक्षा बजट अमेरिका की तुलना में एक तिहाई के करीब है, बल्कि उसका विस्तारवाद आर्थिक है क्योंकि ड्रैगन दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था में अपनी जड़ें जमाकर आक्रामक रूप से स्थायी प्रकृति का आर्थिक विस्तार कर रहा है।

‘वन बेल्ट, वन रोड (OBOR) या बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI)’ परियोजना
बेल्ट ऐंड रोड परियोजना की घोषणा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा 2013 में कई गई थी। सैकड़ों अरब डॉलर की चीन-केंद्रित इस महत्वाकांक्षी परियोजना में अब तक करीब 150 से ज्यादा देशों ने साझेदारी की मंजूरी दे रखी है। इसका उद्देश्य चीन के साथ यूरोप, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के तमाम देशों को सीधे रेल, रोड और जलमार्ग से जोड़ कर चीन के ट्रेडिंग नेटवर्क को विकसित करना है, जिससे इन देशों में चीनी निवेश और व्यापार को पहले से कई गुना बढ़ाया जा सके।

खदानों, ऑइल रिपाइनरीज से लेकर बंदरगाहों तक, ट्रेन-एयरपोर्ट्स से लेकर उद्योग-धंधों तक, हर क्षेत्र में चीन का निवेश और दबदबा कई साझेदार देशों में बढ़ा भी है। कई देशों में चीन का यह व्यापारिक दखल इतना बढ़ गया है कि वहां के स्थानीय लोगों में भारी रोष व्याप्त हो गया है और वे इसे चीनी सम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद तक की संज्ञा दे रहे हैं।

यह भय या शंका निराधार नहीं है। इसे चीन की ‘डेट-ट्रैप डिप्लोमेसी’ भी कहा जा रहा है। हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू के मुताबिक, चीन ने 150 देशों को 1.5 ट्रिलियन डॉलर का लोन दिया, जिसकी तुलना में वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ ने महज 200 अरब डॉलर का कर्ज दिया है। कई छोटे देशों में ऐसा हुआ है कि चीन ने पहले इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर भारी कर्ज देकर कर्जदार बनाया और फिर बाद में उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया मसलन श्रीलंका को कर्ज बढ़ने की वजह से दिसंबर 2017 में अपना हम्बनटोटा बंदरगाह 15 हजार एकड़ जमीन के साथ चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर देना पड़ा। ऐसा ही कई अफ्रीकी देशों जैसे जाम्बिया के साथ हो रहा है।

म्यांमार के कुल ऋण का लगभग 40% चीन का है, ऐसे में उसे भी आशंका है कि कहीं वो भी डेट ट्रैप में न फंस जाए। कोरोना ने संकट को और बढ़ा दिया है और महीनों के लॉकडाउन के कारण सैकड़ों देशों में ठप पड़े व्यापार ने विश्व अर्थतंत्र को मंदी के दलदल में धकेल दिया है। अमेरिका, चीन और जापान समेत दुनिया के तमाम देश इस मंदी के दौर में कदम रख रहे हैं। हालांकि वैश्विक गिरावट ने निर्यात पर निर्भर चीन की अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दिया है, जो लड़खड़ा रही है और जिसे संभलने में वक्त लगेगा।

एक रिपोर्ट के अनुसार BRI परियोजना के साझेदार देशों में लगभग आधे देश (65 से अधिक) छोटे और गरीब देश हैं जिनकी आर्थिक दशा और दिशा दोनों ही लचर रही है। कुछ एजेंसियों के अनुसार इस परियोजना में चीन ने अपनी बैंकों के जरिए अब तक 1.5 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा का कुल निवेश और कर्जा दे रखा है जिसमें म्यांमार, श्रीलंका, ज़ाम्बिया, पाकिस्तान, कंबोडिया, लाओस, जैसे कई देश शामिल हैं। चीनी वायरसजन्य महामारी के कारण कुछ देशों ने बिगड़ती आर्थिक स्थिति के मद्देनजर चीन से लिए गए कर्जे में ढील का अनुरोध किया है।

वहीं दूसरी ओर, कई ऐसे साझेदार पश्चिमी देश हैं जिन्होंने चीन को वुहान वायरस सम्बंधी सूचना छुपाने का जिम्मेदार माना है और इससे इन देशों में जनता का चीन से भरोसा भी उठना शुरू हो गया है। पिछले तीन महीनों में चीन ने कोरोना पर अपनी आलोचना के जवाब में आक्रामक रुख अपना कर तमाम दुनिया को अपने से दूर ही किया है। वक्त रहते न संभलने से परिस्थितियां वैश्विक ध्रुवीकरण और दीर्घकालीन शीतयुद्ध की ओर ले जा सकती हैं जो पूरे विश्व या किसी भी देश के लिए अच्छी नहीं होंगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं और वर्तमान में गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक आचार्य हैं। ऊपर व्यक्त किए विचार उनके निजी हैं)

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