कबीर के इन प्रेम संदेशों से करें रविवार का आगाज
आज अपने संडे की सुबह संत कबीर के संदेश से शुरु करते हैं। संत कबीर ने प्रेम के इतने मीठे शब्द कहें हैं जो पीढ़ियों तक कानों में गूंजते हैं। कबीर वाणी हर किसी के जीवन को कहीं ना कहीं प्रभावित करती है।
आज हम आपको कबीर के कुछ दोहे सुनाएंगे और उनके अर्थ से भी रू-ब-रू कराएंगे। उन्होंने प्रेम की कई परिभाषा दी है। प्रेम, प्रेम नहीं, मोह है, पुत्र के प्रति प्रेम, प्रेम नहीं, मोह है। इसी प्रकार जाति विशेष, संप्रदाय विशेष, देश विशेष के प्रति प्रेम, प्रेम नहीं मोह है, ममता है। प्रेम उदय तब होता है जब हमारा स्वार्थ घटता है। यह स्वार्थ ही रोड़ा है। लेकिन इस स्वार्थ को खत्म करना आसान नहीं है।
कबीर के बहुत ही चर्चित दोहे
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
बड़ी बड़ी किताबें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए हैं, लेकिन सभी ज्ञानी नहीं होते। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह से पढ़ ले, तो सच्चा ज्ञानी बन ही जाता है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
मतलब संसार में बुराई मत देखो, अगर बुराई ढूंढने की कोशिश करोगे, तो तकलीफ होगी। जब हम खुद में झांकते हैं तो पता चलता है हम ही सबसे बुरे हैं।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
मतलब, मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तभी आएगा जब उसका सही समय होगा, यानी ऋतु आएगी।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
मतलब, कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो।