कानपुर में ओमीक्रोन से डरे डॉक्टर ने बीवी-बच्चों को मार डाला, पर जरा इन 'योद्धाओं' से तो मिलिए
उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक डॉक्टर ने अपनी पत्नी और दो बच्चों की हत्या कर दी। डॉक्टर ने कहा कि वह भी इस दुनिया से जा रहा है और वह लापता है। डॉक्टर ने अपने दस पन्ने के सुइसाइड नोट में लिखा कि अब वह और लाशें नहीं गिनना चाहता। ओमीक्रोन हर किसी को मार देगा। उसके नोट में लिखी बातों में उसने बताया कि वह डिप्रेशन में है। यह सिर्फ कानपुर के डॉ. सुधीर कुमार की बात नहीं, कोरोना काल में तमाम डॉक्टर डिप्रेशन का शिकार हुए लेकिन उन्होंने डॉ. सुधीर की तरह हार नहीं मानी न ही इस तरह का खतरनाक कदम उठाया। उन्होंने खुद को संभाला और डटे रहे। कुछ ने तो खुद का इलाज तक करवाया और वे इसे कोई शर्म की बात नहीं मानते कि उन्हें साइकियाट्रिस्ट से पास जाना पड़ा।
किंग जॉज मेडिकल यूनिवर्सिटी के डॉ. डी हिमांशु कोरोना वॉर्ड के इंचार्ज थे। उन्होंने बताया कि ट्रॉमा सेंटर से लेकर वॉर्ड तक हर तरफ मरीज, लाशें और तीमारदारों की चीख सुनते थे। उन्होंने बताया कि हम लोगों को फिजिकल स्ट्रेस के साथ मानसिक तनाव भी था। बिना ब्रेक लिए, बिना खाए पिए अपनों से दूर रहकर बस अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। बहुत सारे मरीजों का लंबा इलाज करने के दौरान उनसे लगाव हो गया और वह चले गए। कई मरीज ठीक होने लगे और छुट्टी से पहले उनकी मौत हो गई।
‘इलाज करने के साथ खुद डॉक्टर से किया कंसल्ट’
डॉ. डी हिमांशु ने बताया, ‘कई हमारे साथी डॉक्टर, जूनियर और सीनियर को कोरोना ने निगल लिया। अपनों की मौत हुई लेकिन हमें रोने की फुर्सत तक नहीं मिलती थी। दिन-रात मेहनत के बाद भी जब मरीजों को नहीं बचा पाते थे तो हताश हो जाते थे। मैं खुद डिप्रेशन में आ गया लेकिन मैंने साइकियाट्रिस्ट से संपर्क किया। मैं खुद यह बताने में शर्म महसूस नहीं करता कि मैंने अपना इलाज कराया। कई लोगों को मानसिक रोग विशेषज्ञ के पास जाने से शर्म लगती है लेकिन उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। अगर किसी को थोड़ा भी तनाव महसूस होता है तो उसे मनोवैज्ञानिक से कंसल्ट करना चाहिए।’
‘डिप्रेशन में आ गया था’
लखनऊ के डॉ. नीरज मिश्रा जो खुद सीवियर कोविड से संक्रमित हुए। छह महीने में दो बार कोरोना हुआ। इस दौरान आईसीयू में रहे। भाई, पिता और मां भी आईसीयू में थे। भाई और पिता की मौत हो गई। मां की हालत भी गंभीर थी। डॉ. नीरज खुद 10 दिनों से बेसुध आईसीयू मे रहे। उनके फेफड़े बुरी तरह संक्रमित हो चुके थे। दस दिनों बाद आईसीयू के बाहर आए पिता और भाई की मौत, मां का जिंदगी और मौत के बीच झूलना उन्हें खाए जा रहा था। वह डिप्रेशन में आ गए।
‘लगा बस आत्महत्या कर लूं, सब ठीक हो जाएगा’
डॉ. नीरज ने कहा, ‘मैं एक साइंस स्टूडेंट रहा हूं। इस प्रफेशन में सैकड़ों लाशें देखी लेकिन बीमारी के दौरान मैंने पाया कि कोरोना के इलाज में मानसिक और भावात्मक सपॉर्ट की बहुत जरूरत होती है। मैं खुद रात-रातभर जागता था। आत्महत्या करने तक की बातें दिमाग में आती थीं। पांच मिनट के लिए ऐसा लगता है कि सब छोड़छाड़ दें… यह निगेटिव थॉट्स आते। मैं तनाव में आ गया था लेकिन फिर मैं पॉजिटिव बातें सोचता। महामृत्युंजय जाप, हनुमान चालीसा वगैरह सुनने लगा। खुद को समझाया कि जीवन अनमोल है। मुझे ईश्वर ने यह शरीर दिया है, डॉक्टर बन पाया हूं तो मैं जब तक जिंदा हूं लोगों की सेवा करूंगा। अगर मरना ही है तो इस तरह आत्महत्या करके क्यों मरना? मरीजों का इलाज करके देश की सेवा कर सकता हूं और फिर इस तरह मैंने अपनी डिप्रेशन दूर किया।’
‘आंखों के सामने लाशें और कानों में रोने की आवाजें’
कानपुर मेडिकल कॉलेज के प्रिंसीपल डॉ. संजय काला ने बताया, ‘कोरोना काल चरम पर था तब मैं आगरा के एस एन मेडिकल कॉलेज का प्रिंसीपल था। लोगों के पास घर या अस्पताल दो ही ऑप्शन थे। डॉक्टर तो घर भी नहीं जा सकते थे। अपने परिवार से दूर अकेले थे। आंखों के सामने सिर्फ मरीज, लाशें और रोते हुए तीमारदार नजर आते थे। कानों में ऐंबुलेंस की आवाजें और लोगों के रोने की आवाजें आती थीं। कई बार हम लोग हताश और निराश होते थे। जो गंभीर मरीज ठीक होते थे उन्हें देखकर अच्छा लगता था। बस मन में एक संकल्प था कि हमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाना है।
‘मरीज आंखों के सामने मरने तो लगता बस…’
डॉ. संजय काला ने बताया, ‘सबकुछ करने के बाद, दुनिया के बेहतर इलाज देने के बाद जब मरीज की मौत हो जाती तो लगता था..बस…। भूखे प्यासे दिन रात डॉक्टर और पूरा मेडिकल स्टाफ इस महामारी से निपटने में लगा था। बहुत मनहूस दौर था। मेरे भाई की मौत हो गई लेकिन मैं कुछ नहीं कर सका। हालात सेकंड वर्ल्ड वार जैसे थे। साथी बीमार हो रहे थे। मैं खुद दो बार बीमार हुआ। मेरे दिमाग में एक बात थी कि अगर मुझे कुछ हुआ तो मेरी पत्नी इस काबिल हैं कि परिवार संभाल लेंगी। परिवार सक्षम है लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनके परिवार में कोई नहीं, पत्नियां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। बस अगर उनकी जान बच जाएगी तो परिवार बच जाएगा। हम लोग आपस में बात करते। हम लोगों ने एक नारा दिया, ‘हारेंगे नहीं, थकेंगे नहीं।’ बस दिमाग में रहता कि ईश्वर ने मौका दिया है बेहतर करने का। हमें हार नहीं माननी है। जिन्हें बचा नहीं सके उनकी सोचने की जगह जो ठीक होकर घर गए उनके बारे में सोचा।’
‘मन आता कि मेहनत बेकार है’
एसजीपीजीआई के डॉ. एसपी अंबेश ने बताया, ‘कोई भी होता है तो उसके लिए फीलिंग आती है। अपने लोग बीमार हो रहे थे। अपनों की मरने की खबरें मिल रही थीं। मरीज मर रहे थे। पूरा मेडिकल स्टाफ तनाव में था। मानसिक और शारीरिक तनाव बहुत था लेकिन हम लोगों ने उसे खुद पर हावी नहीं होने दिया। ऐसे में जरूरी होता है कि साइकलॉजिकल और पारिवारिक सपॉर्ट मिले। सृष्टि का नाश हो जाएगा… ईश्वर नाराज है… सब खत्म हो जाएगा.. इस तरह से सोचने वाले लोग ज्यादा डिप्रेशन में आते हैं। उन्हें लगता है कि उनके मरने के बाद घर में प्रॉब्लम हो जाएगी तो सबको मार दो। ऐसे में उन्हें मनोवैज्ञानिक से कंसल्ट करना चाहिए। कई बार मेरे मन में भी आया कि क्या होगा? मेहनत बेकार हो रही है? हम लोगों को बचा नहीं पा रहे हैं लेकिन हम आपस में बात करते। वीडियो कॉल पर बात कर लेते थे। अपने मन की बातें एक दूसरे को शेयर करते और एक-दूसरे की काउंसलिंग करते।’
फोटो और समाचार साभार : नवभारत टाइम्स