दिव्यता का एहसास है धर्म

दिव्यता का एहसास है धर्म
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जब हम संतुलित होते हैं, तभी धर्म के मार्ग पर चल पाते हैं. धर्म ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव उत्पन्न करता है, जिससे हम स्वयं में दिव्यता का अनुभव कर पाते हैं. दिव्यता का यही एहसास हमें ईश्वर के समीप ले जाता है.

अध्यात्म के मार्ग पर तीन कारक हैं: बुद्ध सद्गुरु या ब्रह्मज्ञानी का सान्निध्य, संघ यानी संप्रदाय या समूह और धर्म यानी तुम्हारा सच्चा स्वभाव. जब इन तीनों का संतुलन होता है, तब जीवन स्वाभाविक रूप से खिल उठता है.

बुद्ध या सद्गुरु एक प्रवेश द्वार की तरह है. तुम बाहर रास्ते पर तपती धूप में हो या तूफानी बारिश में फंस गए हो; तब तुम्हें शरण या द्वार की आवश्यकता महसूस होगी. उस समय वह द्वार बहुत आकर्षक और मनोहर लगेगा. वह तुम्हें दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा आनंददायक लगेगा. ठीक ऐसे ही तुम गुरु के जितने करीब होगे, तुम्हें उतना ज्यादा आकर्षण, ज्यादा नयापन और ज्यादा प्रेम महसूस होगा. दुनिया की कोई भी चीज तुम्हें वैसी शांति, आनंद और सुख नहीं दे सकेगी. तुम ब्रह्मज्ञानी से कभी भी ऊबोगे नहीं. उनकी गहराई की कोई थाह नहीं है. यही लक्षण है कि तुम सद्गुरु के पास आ पहुंचे हो. यहां पर हम सुरक्षित, पूर्ण और आनंद में रहते हैं. गुरु के होने का यही आशय है.

दूसरा तत्व है संघ या समूह. संघ का स्वभाव बुद्ध से बिल्कुल उल्टा है. बुद्ध मन को केंद्रित करते हैं; संघ में, क्योंकि ज्यादा लोग हैं; मन बिखर जाता है, टुकड़ों में बंट जाता है. जैसे ही तुम इसके आदी हो जाते हो, इसका आकर्षण समाप्त हो जाता है. यह संघ का स्वभाव है. फिर भी इससे बहुत सहारा मिलता है. प्राय: तुम बुद्ध के लिए राग रखते हो और संघ के प्रति द्वेष और फिर उसे बदलना चाहते हो. न ही राग रखो और न ही द्वेष, क्योंकि बुद्ध या संघ को बदलने से तुम बदलने वाले नहीं हो.

तुम्हारा मुख्य उद्देश्य है तुम्हारे अंतर्मन की गहराई के केंद्र तक पहुंचना, जिसका अर्थ है अपने धर्म को पाना. यह तीसरा कारक है.

धर्म क्या है? धर्म मध्य में रहने को कहते हैं. अतिवाद की ओर नहीं जाना ही तुम्हारा स्वभाव है. तुम्हारा स्वभाव है मध्य में, संतुलन में रहना, दिल की गहराइयों से मुस्कुराना. पूरे अस्तित्व को- जैसे है, वैसा ही पूर्ण रूप से स्वीकार करना. ये जानना कि ये क्षण जैसा भी मेरे सामने रखा गया है; मैं वैसा ही उसे स्वीकारता हूं. इस पल और हरेक पल के लिए अंदर से स्वीकार की भावना ही धर्म है.

जब ये बात समझ आती है, तब कोई समस्या नहीं रहती. सभी समस्याएं मन की ही उपज हैं. सारी नकारात्मकता हमारे मन के अंदर से ही आती है. संसार बुरा नहीं है, हम उसे सुंदर या कुरूप बनाते हैं.

जब तुम अपने धर्म में, अपने स्वभाव में स्थित होते हो, तुम दुनिया को दोष नहीं देते, भगवान को दोष नहीं देते. मानव मन की मुश्किल ही यही है कि ये पूरी तरह से विश्व का हिस्सा नहीं बन पाता, न ही ये दिव्यता का हिस्सा बन पाता है. वह दिव्यता से दूरी महसूस करता है. धर्म वह है, जो तुम्हें बीच में रखता है. संसार के साथ सुगमतापूर्वक निभाना सिखाता है. यह तुम्हें संसार में अपना योगदान देना भी सिखलाता है. दिव्यता के साथ आराम से रह कर तुम्हें उस दिव्यता का हिस्सा होने का एहसास दिलाता है. वही सच्चा धर्म है.

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