अफगानिस्तान-तालिबान शांति वार्ता फिर शुरू, जानिए क्या होगा भारत पर असर?

अफगानिस्तान-तालिबान शांति वार्ता फिर शुरू, जानिए क्या होगा भारत पर असर?
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काबुल
अफगानिस्तान के विरोधी खेमे दशकों के संघर्ष के बाद दीर्घकालिक शांति के मकसद से शनिवार को लंबे समय से अपेक्षित वार्ता शुरू हो गई है। इस वार्ता की सफलता से अमेरिका और नाटो सैनिकों की करीब 19 साल के बाद अफगानिस्तान से वापसी का रास्ता साफ होगा। खाड़ी देश कतर में बातचीत शुरू हो गई है जहां का राजनीतिक दफ्तर है। इस डील में अमेरिका सक्रिय रूप से भागीदारी कर रहा है क्योंकि वह राष्ट्रपति चुनाव से पहले अफगानिस्तान में फंसे अपने 20 हजार सैनिकों को वापस निकालना चाहता है। अमेरिकी चुनाव में अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी भी एक बड़ा मुद्दा है।

तालिबान लड़ाकों के हथियार छोड़ने पर भी होगी बात
दोहा में जारी इस वार्ता के दौरान दोनों पक्ष कठिन मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करेंगे। इनमें स्थायी संघर्ष विराम की शर्तें, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और हजारों की संख्या में तालिबान लड़ाकों का हथियार छोड़ना भी शामिल है। दोनों पक्ष संवैधानिक संशोधनों और सत्ता बंटवारे पर भी बातचीत कर सकते हैं।

शांति का मतलब तालिबान के साथ सत्ता बंटवारा नहीं
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने दो टूक लहजे में कहा कि अफगानिस्तान में शांति का मतलब सत्ता साझा करने का राजनीतिक सौदा नहीं है। उन्होंने कहा कि यह लोगों की इच्छाओं को पूरा करना है जो युद्धग्रस्त देश में हिंसा और खूनखराबा खत्म करना चाहते हैं। हर कोई देश में हिंसा को समाप्त होते देखना चाहता है। दुश्मन चाहे देश को कितना ही नुकसान क्यों न पहुंचाने की कोशिश कर लें, अफगानिस्तान वापस उठ खड़ा होगा।

भारत पर क्या होगा असर?
अफगानिस्तान और तालिबान के बीच अगर शांति समझौता हो जाता है तो इससे भारत को नुकसान पहुंच सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार, अगर अफगानिस्तान में तालिबान मजबूत होता है तो यह भारत के लिए चिंता का विषय होगा। तालिबान पारंपरिक रूप से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का करीबी है। ऐसे में अगर तालिबान सत्ता में आता है या मजबूत होता है तो वह पाकिस्तान के कहने पर भारत के हितों को नुकसान पहुंचा सकता है।

भारत की कई परियोजनाओं को खतरा
अफगानिस्तान को विकसित करने के लिए भारत ने अरबों डॉलर का निवेश किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने अफगानिस्तान को अबतक 3 अरब डॉलर से ज्यादा की सहायता दी है। जिससे वहां की संसद भवन, सड़कों और बांधों का निर्माण किया गया है। भारत अब भी 116 सामुदायिक विकास की परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, रिन्यूएबल एनर्जी, खेल और प्रशासनिक ढांचे का निर्माण भी शामिल हैं। भारत काबुल के लिये शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है।

अफगानिस्तान में भारत की लोकप्रियता बढ़ी
अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए भारत नानगरहर प्रांत में कम लागत पर घरों का निर्माण का काम भी शुरू करने जा रहा है। इसके अलावा बमयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क का निर्माण, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिये पीने के पानी के नेटवर्क को भी बनाने में भारत सहयोग दे रहा है। कंधार में भारत अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (ANASTU) को भी बना रहा है। इन सभी विकास कार्यों के कारण भारत की लोकप्रियता अफगानिस्तान में बढ़ी है।

चाबहार परियोजना को हो सकता है खतरा
भारत ईरान के चाबहार परियोजना के जरिए अफगानिस्तान, मध्य एशिया और यूरोप में व्यापार को बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए भारत कई सड़कों का निर्माण भी कर रहा है जो अफगानिस्तान से होते हुए भारत के माल ढुलाई नेटवर्क को बढ़ाएगा। अगर तालिबान ज्यादा मजबूत होता है तो वह पाकिस्तान के इशारे पर भारत को परेशान भी कर सकता है। इससे चाबहार से भारत जितना फायदा उठाने की कोशिश में जुटा है, उसे नुकसान पहुंच सकता है।

अफगानिस्तान सरकार हो जाएगी कमजोर
तालिबान अगर अफगानिस्तान सरकार के साथ शांति समझौता कर लेता है तो उसपर होने वाले हमले बंद हो जाएंगे और तालिबान पर लगे सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध भी खत्म होंगे। इससे न केवल तालिबान मजबूत होगा बल्कि वहां की लोकतांत्रिक सरकार को खतरा पैदा हो जाएगा। वहीं पाकिस्तान से मिल रहे हथियारों की मदद से तालिबान सत्ता पर काबिज भी हो सकता है। जो भारत के लिए सही नहीं होगा।

कैसे हुआ तालिबान का जन्म
तालिबान का जन्म 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ। इस समय अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) की सेना हारकर अपने देश वापस जा रही थी। पश्तूनों के नेतृत्व में उभरा तालिबान अफगानिस्तान में 1994 में पहली बार सामने आया। माना जाता है कि तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जिसमें इस्तेमाल होने वाला ज़्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था। 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरु हो गया था जिसके बाद तालिबान का जन्म हुआ।

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