'जांबिया से सीखे नेपाल, नहीं तो बनेगा चीनी उपन‍िवेश'

Facebooktwitterredditpinterestlinkedinmail

महेंद्र कुमार सिंह
कालापानी और लिपुलेख को लेकर भारत और नेपाल के बीच विवाद गहराता जा रहा है। नेपाल के प्रधानमंत्री लगातार भारत विरोधी बयान देकर अपने देश की जनता को भड़का रहे हैं। इस बीच बिहार के सीतामढ़ी में जानकीनगर बॉर्डर पर नेपाल शस्त्र बल की ओर से फायरिंग () की गई है। इसमें एक भारतीय की मौत हो गई, वहीं दो अन्य लोग घायल हुए हैं। इससे दोनों देशों के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंच गया है।

चीन के हाथों में खेल रहे नेपाल के प्रधानमंत्री भारत को उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे लेकिन उन्हें और नेपाली जनता को अफ्रीकी देश जांबिया से सबक सीखना चाहिए। बढ़ते हुए नस्लीय तनाव के बीच 24 मई को जांबिया की राजधानी लुसाका में तीन चीनी नागरिकों की हत्या हो गई। हाल के कुछ सालों में अपनी महत्वाकांक्षी योजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ के तहत चीन ने कई अफ्रीकी देशों को इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स के लिए करोड़ों डॉलर के लोन दिए हैं। इनमें सबसे बड़ा ऋणी देश जांबिया है।

जांबिया के कुल ऋण का 44% चीन के पास
सीएनएन की एक खबर के अनुसार करीब 22,000 चीनी नागरिक जांबिया में रह रहे हैं, जो वहां करीब 280 कंपनियों को चला रहे हैं। यह जानना जरूरी है कि जांबिया के कुल ऋण का 44% बीजिंग के पास है, जिसकी वजह से वहां के लोगों को लगता है कि चीन का उनके देश के ऊपर ज्यादा नियंत्रण हो गया है। जो जांबिया में हुआ वह अफ्रीका के बाकी देशों या फिर एशिया के देश में भी हो सकता है और शायद वही हो भी रहा है।

अब जरा नेपाल के पश्चिम में झांक लेते हैं और बात करते है चीन के पुराने रणनीतिक पार्टनर पाकिस्तान की, जहां करीब 62 बिलियन डॉलर की लागत से चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर को मूर्तरूप दिया जा रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने देश में तेजी से बढ़ रहे बिजली के दामों के पीछे का कारण जानने के लिए एक कमिटी गठित की है। इस कमिटी का निष्कर्ष है कि बिजली के दाम बढ़ने के पीछे भ्रष्टाचार हुआ है, जिसमें चीन की पावर कंपनियां पूरी तरह से संलिप्त हैं। कुछ ऐसी ही खबरें श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार, बांग्लादेश सहित तमाम देशों से भी आ रही हैं, जहां चीन ने आर्थिक सहायता करने, इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने के नाम पर अपनी पैठ बना ली है या पैठ बनाने में लगा हुआ है।

चीन की ओर जानबूझकर आखें बंद किए हैं ओली
इन परिपेक्षों को देखते हुए, नेपाल की जनता और वहां के प्रतिनिधियों को तय करना है की हिमालयन किंगडम की अखंडता एवं संप्रभुता को चीन से खतरा है या भारत से। जहां एक तरफ चीनी सम्राज्यवाद मुंह बाए खड़ा है, वहीं दूसरी तरफ कभी कभी ‘बड़े भाई’ जैसा व्यवहार करने वाला सदियों पुराना मित्र राष्ट्र भारत है। वैसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक की कीमत पर दूसरे राष्ट्र के साथ संबंध बनाने की मजबूरी नहीं होती है। एक देश एक ही समय में दो ऐसे राष्ट्रों (जिनके आपसी संबंध अच्छे नहीं होते हैं) के साथ से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रख सकता है। आखिर फिर नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की क्या मजबूरी है, जो वह भारत को नाराज कर चीन से संबंध कायम करना चाह रहे हैं?

योगी आदित्‍यनाथ की सलाह का गलत मतलब निकाला
नेपाल के मौजूदा शासक चीन के ‘आर्थिक साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद’ को समझकर भी नासमझ बने हुए हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की नीतियों का समग्र विश्लेषण दर्शाता है कि वह सत्ता में बने रहने के लिए विदेश नीतियों के सर्वमान्य मुख्य तत्व को भुला कर, राष्ट्रहितों की उपेक्षा करने तक को तैयार हो गए हैं। शायद इसलिए अब उन्होंने अपनी पुरातन संस्कृति के प्रतीक गोरक्षपीठ के महंत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अपने एक मित्र राष्ट्र को दी गई, मित्रवत सलाह भी नागवार लगने लगी है।

चीन के तिलस्म से अभिभूत ओली ने योगी आदित्‍यनाथ की सलाह को नेपाली संसद में तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। यह बयान अगर पाकिस्तान की ओर से आया होता तो आश्चर्य की कोई बात नहीं थी क्योंकि वह दशकों से विदेशी शक्तियों के हाथ का खिलौना रहा है। हैरत तो इस बात पर है कि मित्रवत सलाह, धमकी कैसे प्रतीत हो सकती है? और वह भी उस शख्सियत की जिनका नेपाल की जनता से सदियों पुराना सांस्कृतिक, भावनात्मक और धार्मिक रिश्ता रहा है। प्रधानमंत्री ओली के हालिया बयानों से साफ तौर पर भारत के खिलाफ कड़वाहट झलकती है।

केपी ओली ने सत्‍ता बचाने के लिए चली चाल
चीनी समर्थक माने जाने वाले ओली का यह कहना है कि भारतीय वायरस, चीनी वायरस से ज्यादा खतरनाक है और 80% कोरोना केस भारत की वजह से हैं। ये बातें हर लिहाज से उनकी खीझ और बेबसी को दर्शाती हैं। एक वामपंथी संगठन से ताल्लुक रखने वाला व्यक्ति अपनी सत्ता, अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंदियों से बचने के लिए ‘कोरे राष्ट्रवाद’ का सहारा ले रहा है। वामपंथी-उदारवादी स्थापना ‘राष्ट्रवाद’ को एक संकीर्ण और दक्षिणपंथियों की विचारधारा मानती है, लेकिन जब सत्ता में बने रहने के लिए लेनिन, स्टालिन रूस में या माओ, और चिनफिंग चीन में इसी विचारधारा का प्रयोग करें तो जायज है।

यह जगजाहिर है कि ओली के नेपाली संप्रभुता और राष्ट्रवाद के कार्ड ने कम्युनिस्ट पार्टी में राजनैतिक समकक्ष और धुर विरोधी पुष्प कमल दहल और माधव कुमार नेपाल के विरोध को फिलहाल कुंद कर दिया है। ओली ने यह कार्ड खेल कर अपनी ही पार्टी के अन्तर्विरोध को न केवल शांत किया है, बल्कि कोरोना का दंश झेल रहे इस संकटकालीन समय में देश के नए नक्शे जिसमें लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा समेत कई भारत के इलाकों को नेपाल ने अपने क्षेत्र में दिखाया है। उन्होंने संसद की मान्यता के लिए ऐसा करके विरोधी दलों की आवाज़ को फ़िलहाल शांत तो कर दिया है, मगर ओली भूल गए हैं कि विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में रिश्ते अल्पकालिक न होकर, दीर्घकालीन होते हैं।

ओली ने भले ही अपने विरोधियों को कुछ समय के लिए शांत कर दिया हो लेकिन जिस तरह से उन्होंने विदेश नीति को आंतरिक और घरेलू राजनितिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया है, उनके इस रवैये की गूंज लंबे वक्त तक रहेगी। इसका खामियाजा नेपाली जनता को भी भुगतना पड़ सकता है। योगी आदित्यनाथ जिस नाथपंथ से आते हैं उसका नाता नेपाल से सदियों पुराना है। वे दिल से मानते हैं कि भारत के पास इस पर्वतीय देश से संबंध मजबूत करने के लिए तमाम कूटनीतिक प्रयासों से इतर ‘नाथ पंथ’ के रूप में एक बेहद मजबूत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक माध्यम भी है।

भारत और नेपाल को जोड़ते हैं योगी आदित्‍यनाथ
हजारों वर्षों से दोनों देशों की सांस्कृतिक परम्परा के सूत्र एक ही रहे हैं। महायोगी श्री गोरखनाथ जी द्वारा प्रवर्तित नाथपंथ के प्रभाव से पूर्व नेपाल में योगी मत्स्येन्द्रनाथ जी की योग परंपरा का प्रभाव साफ दिखायी पड़ता है। नेपाल के सामाजिक जनजीवन में योगी मत्स्येन्द्रनाथ जी को समादर प्राप्त है, जिसकी झलक नेपाली समाज में प्रसिद्ध मत्स्येन्द्र-यात्रा-उत्सव के रूप में मिलती है। गुरु गोरक्षनाथ के प्रताप से गोरखा राष्ट्र, जाति, भाषा, सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतिष्ठा हुई और तब से लेकर नेपाल में राजशाही की समाप्ति तक शाह राजवंश का आधिपत्य बना रहा। यही नहीं शाह राजवंश के सभी नरेशों ने श्री गोरखनाथ जी को अपना ईष्टदेव स्वीकार किया है और एक प्रकार से नेपाल अधिराज्य के वे ईष्टदेव माने भी गए हैं।

यहां यह जानना बेहद जरूरी है कि नेपाल के शाहवंशी शासकों ने अपने सिक्कों पर श्री गोरखनाथ जी की चरणपादुकाओं का चिन्ह अंकित कराया था। साथ ही उन सिक्कों पर ‘श्री श्री गोरखनाथ’ उत्कीर्ण भी अंकित कराया था। यह भी उल्लेखनीय है कि नेपाल की जनता और शाह राजवंश परंपरागत रूप से महायोगी श्री गोरक्षनाथ जी को प्रतिवर्ष भारत में स्थित गोरखपुर के श्री गोरखनाथ मन्दिर में मकर संक्रान्ति पर्व पर खिचड़ी चढ़ाते हैं। गोरखनाथ जी आज भी नेपाली जनता के बीच राष्ट्र गुरु के रूप में पूज्य हैं। आज यह चिंता का विषय यह है कि हिमालय की वादियों में खेले जा रहे ‘नए ग्रेट गेम’ में भारत, उस नेपाल से कहीं दूर होता जा रहा है जो ब्रह्मलीन योगी अवेद्यनाथ के शब्दों में ‘हमारा पड़ोसी मित्र राष्ट्र ही नहीं समान और साझा सांस्कृतिक विरासत के कारण सहोदर भाई जैसा एकात्म राष्ट्र भी है।’

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं और वर्तमान में गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक आचार्य हैं)

Facebooktwitterredditpinterestlinkedinmail

WatchNews 24x7

Leave a Reply

Your email address will not be published.