युवाओं में अवसाद्जनित आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति खतरनाक : महेश पोद्दार

युवाओं में अवसाद्जनित आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति खतरनाक : महेश पोद्दार
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रांची : सांसद श्री महेश पोद्दार ने देश के युवा वर्ग, विशेषतः विद्यार्थियों द्वारा अवसाद की वजह से आत्महत्या की घटनाओं पर चिंता जतायी है| उन्होंने कहा कि युवाओं में बढ़ता अवसाद एक बड़ी समस्या है और भारत जैसे देश में जहां सर्वाधिक आबादी युवाओं की हैं, इस समस्या पर काबू पाना सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय है| श्री पोद्दार ने राज्यसभा में शून्यकाल के तहत यह मामला उठाया| उन्होंने इस विषय पर सदन में गंभीरतापूर्वक चर्चा कराने और सरकार से युवाओं में अवसाद नियंत्रित करने हेतु आवश्यक उपाय करने की मांग की|

सदन में श्री पोद्दार ने कहा कि हाल ही में संसद में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराये गए आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में छात्रों के अवसाद और मानसिक पीड़ा के बारे में कुछ चौंकाने वाले विवरण सामने आए हैं। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 और 2018 के बीच, भारत में हर साल लगभग 10,000 छात्रों ने आत्महत्या की। देश में विगत तीन वर्षों में आत्महत्या की 29,542 घटनायें हुयी जिनमे से महाराष्ट्र में 4,235, तमिलनाडु में 2,744, मध्य प्रदेश में 2,658 और पश्चिम बंगाल में 2,535 मामले संज्ञान में आये|

भारत में वैश्विक स्तर पर 15-29 वर्ष के बच्चों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक है और हाल ही में NCRB की रिपोर्ट बताती है कि हर दिन औसतन 28 विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं। आम धारणा यही है कि पढ़ाई और कैरियर की वजह से युवा अवसादग्रस्त होते हैं और आत्महत्या को प्रेरित होते हैं| लेकिन एक विश्लेषण से पता चला है कि अकादमिक तनाव अब युवाओं की आत्महत्या का प्राथमिक कारण नहीं है| एनसीआरबी 2018 के आंकड़ों के अनुसार, औसतन 10 हजार प्रतिवर्ष होनेवाली आत्महत्याओं में केवल 1,529 आत्महत्याएं परीक्षा में असफलता की वजह से हुईं थीं| शेष घटनायें परिवार के मुद्दे, प्रेम प्रसंग और बीमारी की वजह से हुई थीं|
श्री पोद्दार ने कहा कि अवसाद और आत्महत्या के बारे में हमारे समाज में अभी भी पर्याप्त चर्चा नहीं है। किसी भी समस्या का समाधान तभी संभव है जब हम उसे समस्या मानें| दिक्कत यह है कि हम अवसाद को दूसरी बीमारियों की तरह रोग मानने और उसका समुचित उपचार कराने को तैयार ही नहीं| संयुक्त परिवारों का टूटना, हमारे परम्परागत पारिवारिक – सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा और पाश्चात्य भौतिक जीवन शैली का अन्धानुकरण भी इस समस्या की एक बड़ी वजह है| उन्होंने कहा कि परिवार, समाज, राजनीति आदि के सभी मंचों पर इस विषय पर खुली चर्चा हो, शिक्षण संस्थानों और कार्य स्थलों पर अनिवार्य तौर पर मनोवैज्ञानिक परामर्शियों की नियुक्ति हो तभी इस समस्या का समाधान संभव है|

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