कबीर का ज्ञान

कबीर का ज्ञान
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बहुत पहले एक साधू गंगा नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहता था. उस साधु का नाम वनखंडी वैरागी था. उनके पास एक कामधेनु गाय थी. वह वैरागी साधू उसी गाय के दूध से लोगों की सेवा किया करते थे.

एक दिन वह वैरागी साधू गंगा नदी में स्नान कर रहे थे. उसी समय नदी में एक लकड़ी के खुले बक्से में लोई में लिपटी हुई एक छोटी-सी बच्ची बहती हुई वैरागी के निकट आयी. वैरागी लकड़ी का वह बक्सा लेकर नदी से बाहर आए. बैरागी ने लोई (कम्बल) को खोल कर उसमे रखी बच्ची को देखा. दयालु वैरागी बच्ची पर दया आ गयी और वह उसे अपने साथ कुटिया पर ले आए. उन्होंने उस बच्ची का पालन- पोषण किया. लड़की बैरागी को लोई में लिपटी हुई मिली थी इसलिए उसका नाम उन्होंने लोई ही रखा.

लोई बड़ी होकर बैरागी की तरह ही संतों की सेवा करने लगी. लोई को वैरागी सत्यज्ञान की शिक्षा देते थे. लोई के ऊपर वैरागी के विराग ज्ञान का पूरा प्रभाव पड़ा हुआ था. वह वैरागी की सेवा बिना किसी लालच के श्रद्धाभाव से किया करती थी. वैरागी की मृत्यु के बाद वह अकेली ही कुटिया पर रहने लगी थी. कुटिया पर आने वाले संतो की सेवा ही उसका मुख्य धर्म था.

लोई एक दिन कुटिया पर अकेली थी, उसी समय वहाँ पर कुछ साधु- संत आए. लोई सभी आये हुए साधु- संतो की सेवा में लगी हुई थी. उसी समय गंगा के उस पार से कबीर जी आ रहे थे, वह खड़ाऊं पहनकर गंगा पर चलते हुए आ रहे थे. कुटिया पर बैठे हुए सभी संतों के साथ- साथ लोई ने भी कबीर को गंगाजल पर चलते हुए देखा. यह दृश्य देखने के बाद सभी संतों को आश्चर्य हुआ.

कबीर जी जब लोई की कुटिया पर आए तो उसने उन्हें आसन पर बिठाया. कबीर के साथ आये हुए सभी संतो को लोई ने कामधेनु का दूध दिया और उनसे पिने का आग्रह किया. कबीर जी ने सभी वह उपस्थित सभी संतों को दूध पीने के लिए कहा और कहा, ‘‘मैं शब्दाहारी हूँ, मुझे अन्न, जल या अन्य किसी प्रकार के आहार की आवश्यकता नहीं है.’’

लोई, कबीर जी की अलौकिक चमक, शब्दाहारी वाली बात और पानी के ऊपर खड़ाऊं पहने हुए चले आने के करामात देखकर आश्चर्यचकित हो चुकी थी. लोई समझ गई थी कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं. लोई ने कबीर जी से अपने बारे में बताने की इच्छा ज़ाहिर की.

कबीर जी बोले:

मो सम कौन बड़ा परिवारी..
सत्य है पिता धर्म है भ्राता, लज्जा है महतारी.
शील बहन संतोष पुत्र है, क्षमा हमारी नारी..
मन दीवान सुरति है राजा, बुद्धिमंत्री भारी.
काम क्रोध दुई चोर बसतु हैं, इनके डर है भारी..
ज्ञानी गुरु विवेकी चेला, सतगुरु है उपकारी.
सत्य धर्म के बसे नगरिया, कहहि कबीर पुकारी.. (श्रोत: कबीर भजनमाला)

अर्थात्:

मेरा परिवार बहुत ही विशाल है, मेरे परिवार की तरह इस धरती पर किसी का परिवार नहीं है. मेरे परिवार में सत्य पिता है, लज्जा माता है, धर्म भाई है, गुण बहन है, क्षमा स्त्री है, संतोष मेरा पुत्र है, मन मेरे परिवार का दीवान है, सुरति राजा है, बुद्धि मंत्री है. मेरे परिवार में बस दो चोरों का डर हमेशा बना रहता है, काम और क्रोध. ज्ञान गुरु है, विवेक शिष्य है और सत्यलोक मेरा निवास स्थान है. वहाँ सभी धर्म परायण हैं.

सद्गुरु कबीर जी की बात सुनने के बाद लोई बिना प्रभावित हुए नहीं रही. उसने कबीर जी से प्रार्थना की कि उसे अपनी शरण में ले लें. कबीर जी ने उसका आग्रह स्वीकार करते हुए लोई को अपना शिष्य बना लिया. कुछ समय बाद कबीर जी वहाँ से अपनी कुटिया पर चलने के लिए तैयार हुए. लोई भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की, कबीर जी ने उसकी यह बात भी मान ली और लोई उनके साथ हो चली.

कुटिया का भार लोई ने जाने से पहले दूसरे संत को सौंप दिया और कबीर जी के साथ काशी चली आई. लोई वहाँ पर नीरू- नीमा के साथ ही रहने लगी. वहाँ पर लोई दिन रात साधु- संतों की सेवा करने लगी और प्रभु का ध्यान करके अपना समय बिताने लगी.

सद्गुरु कबीर जी लोई को समझाने लगे:

प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोच.
उत्तम प्रीति सो जानिए, सद्गुरु से जो होय..

अर्थात् :

प्रेम- भाव एक- दूसरे को करीब लाता है और सद्भावना जगाता है. समानता, मित्रभावन, सहयोग तथा निर्भयता इसके गुण हैं. प्रेम अनेक प्रकार का होता हैं, भौतिक प्रेम शारीरिक सुख प्राप्त करने के लिए और आत्मिक प्रेम आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय सुख के लिए होता है. आत्मिक प्रेम आत्मा का वह आईना है, जिसमें सभी प्रेमी आत्म-साक्षात्कार करते है. वह प्रेम और ईश्वर की भक्ति की सहायता से अपने प्रियतम सत्यपुरुष- परमात्मा के निकट पहुँच जाता है. सेवक और स्वामी का पवित्र प्रेम- भाव ही सबसे उत्तम प्रेम है.

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